Sunday, June 3, 2007

जानँ हमारी ...

आज फिर हुए बे-आबरू
आज फिर हुए रुसवा
फिर टूटा दिल और
आँखें हुई नम,
कौन समझेगा दिल कि बातें
ज़ुबां जब उनको समझ ना आई ,
भरोसा क्या करे
किस का करे यकीन ,
वो जो थे दिल के मेहमान
वोह ही जब निकले रकीब,
निकले थे ऐसे उनके कुचे से हम
निकलता है जैसे जनाज़ा कोई,
जानँ है वो हमारी
और जान से भी जयादा
प्यारी है हमे "जानँ" हमारी ,
जाकर कह दे कोई
दे दी होती जान इस रुसवाई पर
डर था मगर
रह जायेगी अकेली
जालिम इस ज़माने में "जानँ" हमारी...
--- अमित १७/०१/०७

No comments: