Saturday, June 9, 2007

गुस्ताखी...

खतावार हैं तुम्हरी
यह गुस्ताख निगाहें मेरी,
देखती हैं यह चोरी चोरी
हर एक अदा तेरी
तेरे रुप की करना चोरी
यह ही तो आदत है , इन निगाहो कि मेरी
मगर कसूर , इनका भी कुछ नही
सूरत ही इतनी प्यारी है तेरी
कहना तो चाहता हू में बहुत कुछ
पर सहारा ही नही देती
यह बेबस जुबान मेरी
गुस्ताखी बस इतनी ही है
इन निगाहो कि मेरी
कहना चहाती यह तुझसे
वोह सुब कुछ
जो कह ना सकी तुझसे
जुबान मेरी
अब पेशी तो तेरे दरबार में है मेरी
देखना है, होती है क्या मुझ पर
नज़रें करम तेरी
यकीन है मुझको
हो ना हो, तुझे भी कुबूल है
यह गुस्ताखी मेरी...

--- अमित २१/०४/०५

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