Sunday, June 10, 2007

तेरा रुप ...

चाहा बहुत कभी लिंखू
तेरे रुप पर मैं
कि मगर जितनी भी कोशिशे
और उल्हज़्ता ही गया मैं,
कभी लगती मुझको दूर बड़ी
फिर लगता जैसे मेरे पास खडी
कभी लगता तुम हो ऐसी
फिर लगता तुम हो वैसी
कभी लगती परी सी
तो कभी अप्सरा सी,
और क्यों ना हो ऐसा
दुनिया में तेरे रुप का सानी कोई नही
और मेरा यह कहना
कोई बेमानी नही,
तेरा एक एक अंग
खुदा ने जैसे अपने हाथ से बनाया
जिसे देख, चौहदवीं का चांद भी शरमाया
तेरी एक भी मिसाल मुझसे ना बन पडी
और मैंने जाना , यह काम है मुश्किल बड़ी,
ज़ुल्फ़ों को तेरी क्या कहे, काले नाग भी इन से पीछे रहे
क्या तेरी भौंहो को कहे , कमान से भी आगे जो रहे
ये तेरे होंठ , ये दो गुलाबी कमल है
ये दो पंखुरियां, खुद मुकम्मल ग़ज़ल है,
दिल की खुबसुरती भी तुने पाई
मन में तेरे चंदन कि शीतलता
और बदन में हिरनी की चंचलता
सूरज की सी आभा तेरे चहरे में आई
नादान बालक की सी मुस्कान भी तुने पाई,
कोई मुझे बतलाए
करु क्या मैं जा कर मैखाना
उसकी दो आँखें खुद ही है पैमाना
जाम जो इन आंखों के पिए
ज़न्नत में वो जिए ,
तुझे तो पता है , किस कि मैंने आस लगाई
यह प्यार की जौंत सिर्फ तेरे लिये जगाई
मुझे तू ही बता, अब तेरे बिन कैसे जिए ...


--- अमित २९/०३/०५

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