देखिए साहब
नज़रिया, है यह
साबका अपना-अपना होता है,
जो हमको पसंद आया
वो एक आंख ना उनको भाता है,
जिद्द होती है साथ चले
और बाहर निकले तो
हर दम रूठना मनाना होता है,
यह रूठना मनाना कुछ और नही
करीब आने का बहाना होता है,
वैसे भी
इस रूठने मनाने का मज़ा
कहीँ और कहॉ आना होता है,
कितना भी रूठे ; कितना भी झगडे
शाम का खाना साथ ही होना होता है,
जब देखे इस को ज़माना
तो वो भी बस कहता है
बस इसी का नाम "याराना" होता है ...
--- अमित १३/०६/०७
2 comments:
ये बात आपने सही कही :)
सुंदर कविता :)
Subhaan Allaahhhhhh
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