Saturday, May 18, 2013

आप बीती ...

श्रीमती जी ने मायके जाने का जो आदेश फ़रमाया

सोच अपने खाने की, दिल में जरा घबराया ...

बस पांच-सात दिन की ही तो बात है,

देखते देखते निकल जायेंगे, उन्होंने दिलासा दिलाया ...

दे दिलासा उन्होंने तो अपनी राह ली

फ़ूड कोर्ट में है अब जाना, सोच कमर हमने कस ली ...

पहले दिन नाश्ते में "पोहा" आया

खा जिसे थोडा सा साहस आया ...

लंच में जब थाली उठाई

देख उसको समझ आया कितनी होती यहाँ सफाई ...

अवशेष बता रहे थे

हमसे पहले लोग क्या खा रहे थे ...

नई फिर हमने एक थाली लगाई

चबाने में वो आलू, दांतों ने खूब जोर लगाई ...

स्वाद से आलू से अभी उबार न पाया था

अगले दिन नाश्ते में उपमा एक नया अचरज लाया था ...

उठाने में पहली ही चम्मच , जोर हमने बड़ा लगाया

चम्मच ने जब परते खोली, सूखे रवे का पहाड़ अन्दर नज़र आया ...

काउंटर पर जा हमने उसकी शिकायत लगाई

इतने में एक देवी जी भी फरियाद अपनी ले वहां आई ...

चटनी हो गई है आप की खराब उन्होंने समझाया

महक ने उसकी , साथ देवी जी का पूरा निभाया ...

अगले दिन का मेनू तो और भी भला था

बैंगन भरता देखा ऐसा लगा, तेज के कुए पर खड़े हो उसको तला था ...

उसके बाद थे चावलों की बारी

यह चीज़ है हमको सदा से प्यारी ...

देख उसकी हालत मैं यह समझ न पाया

बनाने वाले ने पुलाव था या हलवा बनाया ...

वो भोग भी हमने बड़े दिल से लगाया

और फिर हम ही जानते, कैसे हमने उसे पचाया ...

अगले रोज थोडा सा दिल ललचाया

मेनू में एक दिल पसंद चीज़ को पाया ...

थाली में हमारी अब बस कढ़ी ही नज़र आई

बाकी पकवान को किनारे ने थोड़ी जगह मिल पाई...

यकीन जानिये चखने से ज्यादा मैं कढ़ी न खा पाया

सालो में पहली बार हुआ, खाना मैं थाली में छोड़ आया ...

जैसे तैसे उस हफ्ते की आखरी शाम भी आई

उस तो तो गज़ब ही हुई रुसवाई ...

ढोकला इडली पर उस दिन दिल अपना आया

कुछ भी हो दिल से इसे जयेगा खाया, बस यही ख्याल तब हम को आया...

तीखा करने उसके स्वाद की कुछ मिर्ची की याद आई

देख मात्रा मिर्ची की, थोड़ी और की गुहार हमने लगाई ...

बिना मिर्ची के कैसे बदन जलता है बात तब समझ आई

मिर्ची के ढेर से जब गिनकर एक मिर्ची उसने हमे थमाई ...

अपने उपर हमने जाने कैसे काबू पाया था

औए सहर्ष मिर्ची को उसे ही लौटाया था ...

शुक्र मनाते है हफ्ते की ही बात थी

फ़ूड कोर्ट को झेलना इससे ज्यादा, बस की न बात थी...

बात अभी तक मैं यह न समझ पाया

क्या सारी इंसानियत को इंसान बेच खाया ...

दाम और मात्रा को इन्सान जैसे तैसे भूल ही जाए

गर खिलाने वाला, खाना कुछ आच्छा खिलाये ...

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