Saturday, May 18, 2013

कवि का हाल ...

कविताई का हमको शौक है
कभी कभी ज़रा फ़रमा लेते है...
चिंता में डूबे हुए सब यार है
कभी कभी उनको गुदगुदा लेते है...
कवि तो कवि हैं
कहीं से भी हास्य निकाल लेते है...
और जनता तो जनार्दन है
हास्य का जाने क्या अर्थ निकल लेते है...
कभी तो अर्थ ऐसे-ऐसे निकाले जाते है
जिनसे कवि महोदय के पहाडे उलटे पढ़ जाते है...
कल का ही अभी एक किस्सा लीजिये
किस्सा एक श्रीमान-श्रीमति का सुनाया...
कैसे बनता है रात का खाना,
भेद हमने उनको समझया...
कैसे हमारे श्रीमानजी की विनती आती हैं
और प्यारी श्रीमतीजी कैसे उसे निभाती हैं...
जान कर यह भेद, सवाल जनता का आया
कविवर कहीं अपने घर का राज़ तो नहीं बतलाया...
सवालों से ऐसे, चिंता की लकीरे बदल जाती है
छोड़ जनता को, कवि के चेहरे पर आ जाती हैं ...
बात यह छोटी सी, जनता को समझना चाहिए
बाते राज़ की कम कुरेदना चाहिए...
जो समझाया है कवि ने दबे शब्दों में
बात का इशारा चुपचाप समझ जाना चाहिए...
श्रीमतीजी पर श्रीमानजी दे जो ज्ञान
श्रीमतीजी वो न कभी पाए जान ...
यह न भूले, धर्म पत्नी, कवि की भी होती है
और धर्म पत्नी में एक ज्वालमुखी छुपी होती है ...
यह ज्वालामुखी "शिकायत" की चिंगरी से भड़कता है
कर जिसकी कल्पना, कवि का ह्रदय जोर से धड़कता है...
आप तो बस यह परिहास कर जाते है
परिहास पर कविवर बेचारे नप जाते है...
बात यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए
श्रीमानजी का हो न हो,
श्रीमतिजी का हमेशा गुणगान होना चाहिए...

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