Thursday, May 31, 2007

वोह आँखें ...




प्यारी थी मगर ,
बहुत सहमी थी वोह आँखें ,
ज़ुबां सिली थी मगर
बहुत कुछ बोलती थी वोह आँखें,
साफ झलक पड़ता था
दर्द सीने का, उन आंखों में
बेबसी तो जैसे ,
ठहर गई थी उस चहरे
और आस के एक हलकी सी किरण
की तालाश में
पथरा चुकी थी वोह आँखें ,
अफ़सोस
दूर तलक दो हाथ भी ना थे
जो देते सहारा उसे ,
आख़िर हुआ वही जो होना था,
छीन गया था उससे
बचपन उसका ,
अब कुछ और नही था
वह नन्हा मासूम
दुनिया के हाथों का बस एक खेलौना था

--- अमित २१/०४/०५

मेरी ज़ुबां ...

हमेशा से ही मैं ज़रा
खामोश सा रहा,
अपने दिल कि बातों को
लोगो से कम ही कहा ,
जहाँ भी आया मोका
ज़ज्बात बयां करने का,
मैं हमेशा पीछे ही रहा,
मेरी जुबान से जायदा
मेरी कलम मेरा सहारा रही,
और मेरे ज़ज्बातों की
कागज़ - कलम से हमेशा अच्छी बनी ,
कागज़ के दिल ने दिया
उनको एक उंचा मुकाम ,
और दुनिया ने दिया
इन ज़ज्बातों को शायरी का नाम ,
शायरी कोई पेशा नही
यह तो बस एक ज़रया बनी,
जिस से मेरे ज़ज्बातों की
दुनिया में कुछ पहचान बनी ।

--- अमित ०६/०४/०५

क्या है यह ...

क्या है यह
हम दोनो के बीच,
प्यार तो हमे कभी था ही नही
और दोस्ती, शयद हमने कभी की ही नही,
और कोई "रिश्ता"
इस शब्द पर तो तुम्हे; यकीन ही नही
फिर भी कुछ तो है
जो तेरे दर्द से बेचैन
और तेरे गम से ग़मगीन करता मुझे,
तेरे हंसने से हंसाता
और तेरी ख़ुशी से हर्षित करता मुझे,
तेरी हार में हार
और तेरी जीत में जीत, समझाता मुझे,
जो तुझ से मिलने
तेरे साथ, को उकसाता मुझे
तुझको हर ख़ुशी देने को, ललचाता मुझे,
सदा तुझ को दिल के पास रखने
मगर तुझको पाने का ख्याल
कभी दिल मे ना लाने देता मुझे,
मुझको तो पता नही
हो सके तो तुम ही कुछ बतला दो मुझे
मगर सच कहू तो
"बेनाम" ही अच्चा लगता "यह" मुझे

--- अमित ०१/०१/०५

साझा मंज़िल ...



जाने क्यों करता हूँ
वो मैं,
जो पसन्द नही तुम्हे
ना जाने क्यों करती हो तुम
वो,
जो मुझे मंज़ूर नही
चाह एक है
मज़िल एक है हमारी
तो,
रास्ते जुदा क्यों,
क्यों टकरा जाती
एक दूजे से यों
इच्चाए हमारी,
क्यों नही होती
साझा
इच्चाए हमारी,
क्या नही हो सकता
एक ही रास्ता हमारा
जो जाता हो
साझा मंज़िल को हमारी

---- अमित ३१/०५/०५

चुप सी तुम ...

चुपके से आई
जिन्दगी में मेरी, तुम
और
हो छाई
हर पल मेरे ज़हन पर, तुम
रहती हो चुप सी तुम
कहती नही;
जुबान से कुछ
आंखों से ही
बस बोलती हो तुम
मैं भी तो निरा
दीवाना हू
सुनता हूँ तुम्हारे
लबों कि अनकही
--- अमित ३०/०५/०७

Wednesday, May 30, 2007

वो हसीं लम्हा...

बड़ा अच्छा लगता
जब चलती ठण्डी हवा
जब उठती काली घटा,
याद दिलाती मुझको
ना भूलने वाला एक हसीं लम्हा,
हवा के तेज झोंके से
दुपट्टे का तेरा उड़ना,
हड्बडा कर तेरा ;उसको पकड़ना,
जैसे दौड़ रह कोई हिरन
कस्तूरी कि भीनी महक पाकर,
एक अनछुआ सा एहसास हुआ
जब दुपट्टे ने तेरे; मेरे चहरे को छुआ ,
सहमे क़दमों से तेरा करीब आना
आकर करीब अपने में सिमटना,
शर्म से तेरा नज़रे झुकाना
और कापते लफ़्ज़ों से दुपट्टा मांगना,
तेरी इस सादगी पर मेरा बे-सुध हो जाना
हाँ; मझे याद है वोह हसीं लम्हा,
थम सी मेरी नब्ज़ गई
बदन ने भी एक सिर्हन भरी,
जब तेरे मखमली हाथ ने मेरा हाथ छुआ
तब तेरे ठंडे लम्स का मुझे एहसास हुआ,
देखा जब तुने मुझको पलटकर
थम सा गया था वो लम्हा,
जैसे मेरी आंखों मे सिमट कर
तब से ना जाने
कितनी बार मिले है हम,
जिए है कितने हसीं लम्हे
एक दूजे के संग,
मगर वो लम्हा कभी नही भूलता
मिले थे जब पहली बार हम।

--- अमित ०१/०४/05

इरादा-ए-यार ...

कयामत होने वाली है
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
संभल-ए- मेरे दिल
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
निकले है वो बे-नकाब
छिपा फिरता है महताब घाटों में आज
हुस्न-ए-यार का नही कोई सानी आज,
संभल-ए- मेरे दिल
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
ठण्डी हवा भी महकना चाहती
इस लिये छूती वो जिस्म-ए-यार आज,
उसके बदन से उठती सिर्हन
करती दिल को बे-करार आज,
संभल-ए- मेरे दिल
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
चांदनी भी मन्द पड़ती
गोरे बदन के आगे आज,
क़त्ल तो अपना मुक़र्रर है
कज़ा सामने खडी है अपने आज,
संभल-ए- मेरे दिल
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
ग़र यही हसीं मंज़र है;मेरे क़त्ल का
तो कोई शिकवा नही,
खुदाया; तू क़त्ल करवा
हज़ारों हज़ार बार मुझको आज,
संभल-ए- मेरे दिल
इरादा-ए-यार अच्छा नही आज,
वो निकले है बे-नकाब आज
--- अमित १७/१२/04

Tuesday, May 29, 2007

मेरी कविताओं ...

मेरी कविताओं,
सोचता हूँ मैं
कभी कभी ,
ना जाने कितना निष्ठुर
लगता हूँ तुम को मैं,
सोचती हो तुम पागल है यह ,
जो बिगाड़ रहा
तुम्हारा सवरूप
ना जाने क्या सोचता
ना जाने क्या लिखता
और खुश होता,
जैसे कितना अच॒छा लिखा
मगर जानता नही
किया है खिलवाड़ तुम्हारे सोंदेर्य से,
जानती तुम भी नही
मैंने तो सदा अच॒छा ही प्रयास किया ,
जैसे कोई नादान बच्चा
कुछ नया बनाता
और अपनी अबोधता से
देता बिगाड़ रुप उसका ,
परंतु यही प्रयास एक दिन रंग लाता
और देता सोंदेर्य को नया आयाम
मैं भी वोही अबोध बालक हूँ,
मेरा भी तुम को वचन है ,
दूंगा एक दिन तुमको नया रुप,
नया सोंदेर्य
और नयी तरह से परिभाषित करुंगा तुम को,
तब तक तुमको धर्य रखना होगा
मुझको वचन दो,
जो भी हो
अंत तक तुम को मेरा
साथ निभाना होगा...
--- अमित १६/०३/०५

जाने क्या चाहता हूँ मैं ...

ए जिन्दगी ,
ना जाने क्या चाहता हूँ मैं
कभी तुझसे ज़फा
तो कभी वफ़ा चाहता हूँ मैं,
सपनो में तो बहुत जिया हैं
हक़ीकत में भी तुझे जीना चाहता हूँ मैं,
हर मोड पर हारा ही हूँ मैं
ना जाने क्यों तुझसे जीत जाना चाहता हूँ मैं,
कभी किसी से की नही मोह्बत
पर तेरे इश्क में डूब जाना चाहता हूँ मैं,
हर पल चली तू मुझसे आगे
तुझसे कदम मिलाकर चलना चाहता हूँ मैं,
गमो से तो बहुत खेला हूँ मैं
चन्द खुशियाँ भी पाना चाहता हूँ मैं,
दुश्मन तो ज़हान में किसी के कम नही
सब को अपना दोस्त बनाना चाहता हूँ मैं,
मरते है सभी गुमनामी कि मौत
ज़हान में रोशन करना अपना नाम चाहता हूँ मैं,
मिला है जनम कुछ करने को
जितना हो सके कर गुज़ारना चाहता हूँ मैं,
हज़ार ख्वाहिशे है दिल में
तुझे क्या क्या बतलाओं, क्या चाहता हूँ मैं,
बस तू साथ रह मेरे और देख
सितारों के आगे ज़हान बसाना चाहता हूँ मैं...

---- अमित १८/०७/05

समय ...

समय,
ना जाने कैसा है यह समय ,
दिखाता लाखों रंग , लाखों रुप
कभी हम को रुलाता तो कभी हंसाता, समय
कभी धुत्कारता, तो कभी दुलारता ,समय
एक पल में सब सिमेटता तो दूजे पल लाखों खुशियां बिखेरता, समय
इक राह बंद कर, संक्डों राह बनाता, समय
हर पर्यतन को सम्मान देता, समय
हाथ से फिसलता तो कभी बाहों में सिमटता, समय
मेरी भरसक कोशिशों के बाद
एक उन्सुल्घा रहस्य , समय
मगर कुछ भी समझो
मुझको तो बस इतना लगता
हर पल इक नया सबक सीखता, समय
हर पल खुशियाँ बाटाने, हर पल प्यार बढाने का संदेश देता, समय
गिरने के बाद उठने का साहस, हर हार के बाद जीत का
और हर रात के बाद , नए सुबह का संदेश देता, समय
--- अमित ०१/०१/05

वोह पेड...



वोह पेड,

खड़ा था
सड़क के कनारे

अकेला,

पास ना था कोई साथी,

पूरा बढ़ चूका था,

अपनी कोशिशों के बाद

और था तत्पर
देने को

अपनी छावं,

हमेशा से

आकर्षित किया उसने

ना जाने क्यों,

फिर भी कभी

पास ना गया उसके

और दूर से ही

देखा किया उसको

सोचा उसके बारे में,

फिरआज
क्यों लेगा ऐसा

जाओ वहाँ और बैठू

उसकी छावं में

और करु कुछ बात...

अमित --- २९/०५/२००७

Saturday, May 19, 2007

वोह ही हो तुम ...

वोह ही हो तुम
थी जिसकी धुंधली सी तस्वीर,
हमेशा से मेरे ख्यालों में.
जानता नही कोई
रह कितना बेचैन मैं,
जानता नही कोई
ढुंढा किया हर पल तुम को मैं,
जानता नही कोई
जागा किया रातों को मैं,
जानत नही कोई
तारे भी गिना किया मैं,
जानता नही कोई
जिया है कितनी मायूसी को मैने,
ना जाने किया है कैसे काबू अपने जज्बातों को,
जब पाया नही कहीँ तुम को मैने,
पर, देखा जब पहली बार तुम को मैने,
कहा धीमे से मुझसे
इस बेताब दिल ने मेरे
जा भर ले उसे बाहों में
वोह सामने खडी है मंज़िल तेरे ...

--- अमित १९ मार्च 07

Saturday, May 12, 2007

तेरा चेहरा ( मेरी पहली कविता)...


आज चांद रात है , पूरे चांद की रात
आसमान में सिर्फ, चांद नज़र आता है
छत पर बैठा चांद को निहार रहा
दूर से आती रात की रानी की महक, मदहोश कर जाती है
और यह हवा , यह पागल हवा, नश्तर सा चलती है
यह नश्तर है , तेरी याद का नश्तर
हवा कि रवानगी कुछ और ही बयान करती है
शायद आज तू बहुत खुश है
हवा में तेरी ख़ुशी साफ झलक पड़ती है
इस चांद को क्या कहूँ
यह आज कुछ खास नज़र आता है
और ऐसा क्यों ना हो
इसमे मुझे तेरा चेहरा नज़र आता है
ना जाने अब मैं क्या करु
हर आहट हर दस्तक
हर जगह तेरा चेहरा नज़र आता है
कितना बेबस हूँ ,
इक अश्क भी नही गिरा सकता ,उसे खो नही सकता
उस में भी तेरा चेहरा नज़र आता है
अब तो यह दुआ है , इस रात कि सुबह ना हो
ना जाने क्यों इस दुआ में असर नज़र आता है
तू ना जाने कब आयगी
मेरी सांस ना थम , येहि सोच कर दिल घबराता है
क्या करु मुझे हर सू तेरा चेहरा नज़र आता है...
---- अमित ०१/१०/०४

Monday, May 7, 2007

वोह इक दिन ...

जीना चाहता हूँ,
एक दिन,
हाँ, बस एक दिन,
मैं उसके साथ,
चाहता हूँ जिसे,
मैं सब से ज्यादा,
और जो चाहती है मुझे;
अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा।
तब,
पहलू में एक दूजे के हम होंगे,
और वक़्त वही ठहरा होगा,
मेरे हाथं में,
उसका रोशन चहरा होगा,
एक दूजे के इतने करीब होगे,
कि दूरी का कोई निशां ना होगा,
हवा को भी; इजॉज॒त ना होगी.
वोह आये हमारे दरमियान ,
टकराती उसकी साँसों से मेरी सांसे होंगी,
वोह जिस दम मेरे आगोश में होगी,
लफ्जो का तब वहाँ काम ना होगा,
हर ज़ज्बात; बस आँखो से बयां होगा
जानता हूँ मैं,
होश मुझे; तब कुछ ना होगा,
शराबी सारा आलम,
किया उसकी नशीली आँखो ने होगा,
उसके बदन कि छुअन से; पिघला
हर ज़ज्बात मेरा होगा,
जिस दम चुमुंगा मैं उसकी पेशानी,
छुपा; आकर मेरे पहलू में मेरा महताब होगा,
पूरी दिलों के हो ; हर ख्वाहिश,
अरमान बस येही, दोनो दिलों में जवाँ होगा....
--- अमित २५/०४/०५

Saturday, May 5, 2007

अब दूरी ...

अब दूरी .....
सही जाये ना; दूर तुझसे रहा जाये ना .....
तेरी इक इक अदा मेरे दिल को भा गई,
दूर तालों में बंद था दिल मेरा,
जालिम उस पर भी नश्तर चला गई
ख़ून-ए-दिल जो अब बहा है,
उस से बस नाम तेरा लिखा है।
रहती है रूह प्यासी,
छायी है दिल पर उदासी,
आती जाती साँसे ,
बस तुझको ही हैं बुलाती,
आ भी जा अब; पास मेरे ,
दे दे करार; इस दिल को मेरे,
सच कहता हूँ मैं,
तुझसे अब एक पल कि दूरी; ना सही जाये मुझसे.....
--- अमित

उसकी गली ...

जादू सा कुछ होने लगता है,
गुजरते है जब भी; उसकी गली से हम
कदम कुछ रुके रुके से उठते है
साँसे कुछ भारी भारी चलती है
और दिल
यह तो पागल है ; रहता है बेचैन बड़ा,
गुजरते है जब भी; उसकी गली से हम
चहाते है ना गुजरे, उसकी गली से हम
कशिश कुछ उनमे ऐसी है
चल पड़ते है खुद; उसकी गली को हम
जादू सा है कुछ; उसकी बातों में
बिन डोर खीचे, हम जाते हैं
होश हवाश रहता नही
पता अपना भूल जाते हैं
गुजरते है जब भी; उसकी गली से हम
रहता है याद बस
उनके ही घर का रास्ता,
दीवानों सी हालत होती है
गुजरते है जब भी; उसकी गली से हम
बताते है; मुझको मेरे दोस्त
बेद्ब्दाते हैं नाम उसका,
सोते है आकर, जब भी उसकी गली से हम
ए दिल
वोह भी जालिम है बडे
लेते है मज़ा हमारा
गुजरते है जब भी; उसकी गली से हम
--- अमित ०५/०५/०५

Thursday, May 3, 2007

इन्तजार...

जोयं जोयं चांद बढ़ता गया
उम्मीद घठ्ती गई,
तू तो ना आई,
और मायूसी बढ़ती गई
वादा करना और ना आना,
यह तेरी नही;
हर हसीन कि अदा हैं।
आशिक़ का दिल तोड़ना,
तुम्हारी बस एक अदा हैं,
तुम हसीनो कि बातों में,
जफा, सिर्फ जफा हैं।
हम आशिको कि तो;
इस में भी रज़ा हैं,
तुम करो जफ़ा;
और हम करे वफा,
अज़ाब ही हैं इसका मज़ा।

कल फिर चांद निकलेगा,
कल फिर मैं आउंगा,
कल फिर तेरा इंतज़ार होगा,
कभी तो वफा रंग लायेगी,
मुझे यकीन है; एक दिन तू ज़रूर आएगी...
--- अमित १९ /१२/०४

Wednesday, May 2, 2007

चाहता हूँ मैं ...

इक गीत है तू मेरा
चाहता हूँ मैं तुझे
अपने होंठों पर सजाना...
एक साज़ हैं तू मेरा
चाहता हूँ मैं तुझे
अपनी ही धुन में बजाना...
इक विश्वास हैं तू मेरा
चाहता मैं तुझे
हर पल अपने दिल में बसाये रखना...
मेरी यादों में
हर पल बसर है तेरा
चाहता हूँ मैं भी
कभी तुझे याद आना...
आती है रोज तू
मेरे ख्यालों मे
चाहता हूँ मैं भी
नींदे तेरी चुराना...
इक नशा हैं तू मेरा
चाहता हूँ मैं
हर पल डूबा
तेरे खुमार में रहना...
अब तो आलम है
इश्क में तेरे पागल हूँ
चाहता हूँ तुझे
अपना बनाना...
--- अमित 30/०४/०५

सितमगर...

रूठे हुए है वोह; हमसे
ना जाने किस बात पर,
कहते हैं हमे जालिम
वोह बात बात पर,
यों ही ढ़हाते हैं सितम
वो बात बात पर,
उनका रूठना तो इक अदा ठहरी
जानते नही वोह ,
निकल जाती हैं; जान इस से हमारी,
जानता हूँ रूठना तो
हुस्न कि इक अदा,
आशिक को तद्पाने में
आता इनको बड़ा मज़ा हैं,
ढ़ूंनढ़तां है यह
इश्क को जलाने के बहाने,
हम भी मगर इश्क हैं
ऐसे पीछा ना छोड़े गे ,
तुम्हारे लिये दुनिया से क्या
खुदा से भी मुँह मोड लेंगे ,
तुम्हारे सितम , ये ना काम कुछ आएंगे
जिधर भी तुम जाओगे; बस हम नज़र आयेंगे...
--- अमित २०/०४/०५