Wednesday, May 30, 2007

वो हसीं लम्हा...

बड़ा अच्छा लगता
जब चलती ठण्डी हवा
जब उठती काली घटा,
याद दिलाती मुझको
ना भूलने वाला एक हसीं लम्हा,
हवा के तेज झोंके से
दुपट्टे का तेरा उड़ना,
हड्बडा कर तेरा ;उसको पकड़ना,
जैसे दौड़ रह कोई हिरन
कस्तूरी कि भीनी महक पाकर,
एक अनछुआ सा एहसास हुआ
जब दुपट्टे ने तेरे; मेरे चहरे को छुआ ,
सहमे क़दमों से तेरा करीब आना
आकर करीब अपने में सिमटना,
शर्म से तेरा नज़रे झुकाना
और कापते लफ़्ज़ों से दुपट्टा मांगना,
तेरी इस सादगी पर मेरा बे-सुध हो जाना
हाँ; मझे याद है वोह हसीं लम्हा,
थम सी मेरी नब्ज़ गई
बदन ने भी एक सिर्हन भरी,
जब तेरे मखमली हाथ ने मेरा हाथ छुआ
तब तेरे ठंडे लम्स का मुझे एहसास हुआ,
देखा जब तुने मुझको पलटकर
थम सा गया था वो लम्हा,
जैसे मेरी आंखों मे सिमट कर
तब से ना जाने
कितनी बार मिले है हम,
जिए है कितने हसीं लम्हे
एक दूजे के संग,
मगर वो लम्हा कभी नही भूलता
मिले थे जब पहली बार हम।

--- अमित ०१/०४/05

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