Tuesday, July 31, 2007

बचपन ...

उड़ता था मन मेरा तब


मेरी किताब के कागज़ के जहाज़ पर


लेती थी हिचकोले


जब चलती थी


वो कागज़ की कश्ती


बारिश के ठहरे पानी पर


डोर कहॉ किस के पास कभी थी


बिन डोर ही उड़ता था मन


इस उंचे अनंत आकाश पर


छोटी छोटी उन आंखों में


ना जाने कितने सपने थे


कल का सपना था क्या


ये किसको याद होता था


हर दिन देखे एक नया सपना


बस यही काम तो अपना होता था


सच ही तो है


बचपन को किसी से क्या मतलब होता है


उसको तो बस कल के दिन का इन्ज़ार है


कल उसको नया कुछ करना है ...
--- अमित २/०८/०५

2 comments:

Yatish Jain said...

उड़ता था मन मेरा तब
मेरी किताब के कागज़ के जहाज़ पर
लेती थी हिचकोले
जब चलती थी
वो कागज़ की कश्ती
बारिश के ठहरे पानी में
Bahut Sundar

Durga said...

बहुत खूब बन्धु !

bachpan ki yaad sach bahut aachi hoti hain! बारिश के ठहरे पानी पर कागज़ की कश्ती to shayad jyada na chalai ho, magar haan barish mein, sab dost khoob bhigte thE, special football matches aur bas yoon hi shorts mein sadko pe ghoomna!!!!!!!!

befikr jindagi!

na jaane kya kya sapne!

बचपन को किसी से क्या मतलब होता है
उसको तो बस कल के दिन का इन्ज़ार है

जी, मगर शायद, मुझे तो कल का भी
इनत्ज़ार नही होता था, बस इतना की दिन ही खत्म न हो, अगला दिन आए ही क्यो, यह दिन खत्म ही क्यो हो!
:-)
बस सपने ही सपने !!!

really nicely written.
thanks for this nice poem.

I can fly kites today also, but those days were special..!

:-)