Friday, July 20, 2007

सच्चाई ...

बोलता हूँ मैं
सच सच बोलो तुम
मैं बस चाहता हूँ
सच सुनना
छोड़ दूगां मैं साथ तुम्हारा
ग़र लगा मुझे यह कोई अफसाना
डरी, सहमी सी वो बोली
हाँ,
कभी चाहा था मैने
उसको, हद्द से जयादा
यकीन जानो
हमेशा से जानती हूँ
मैं अपनी मरियादा
ना जाने फिर क्या हुआ
बस , इतना सुना
कहा उसने
नही रह सकते अब हम साथ
चली जाओ तुम मेरी जिन्दगी से आज
क्या
क्या, बस येही था सच्चाई का इनाम
या
बस इतना ही था साहस मिलने का उस से
सच्चाई है जिसका नाम।
--- अमित २०/०७/०७

2 comments:

Anonymous said...

keep the good work going nice expressions improving with each passing day

कंचन सिंह चौहान said...

वाह अमित जी हमारी (स्त्रियों की)वेदना आपकी कलम से पढ़ कर अच्छा लगा