Friday, July 30, 2010

बाद जमानो के ...


बाद जमानो के
वो मिलने हम से आये
देख उनको तारे
ख़ुशी से और झिलमिलाये ...
चाँद तो,
उनसे जलता है ,
मिलना उनसे, हमारा
उसको बहुत खलता है ...
आते ही उनके
लाख चाले वो चलता है
हम भी,
हो चले अब श्याने है
जाएगा कहाँ वो
"पर" उसके.
हमने कुतर डालें है ...

--- अमित ३०/०७/२०१०

माइग्रेशन तेरे बाजार में ...

क्या से क्या हो गया
माइग्रेशन तेरे बाजार में
चाहा क्या , क्या मिला
माइग्रेशन तेरे बाजार में
चलो पी.ऍम का भरम तो टुटा
जाना के माइग्रेशन क्या है
कहती है जिसको
अंडर-एस्टिमेट ये दुनिया
माइग्रेशन चीज़ वो क्या है
हमने क्या के न सहा
माइग्रेशन तेरे बाजार में
चाहा क्या , क्या मिला ,
माइग्रेशन तेरे बाजार में ...
मौज-ओ-मस्ती के हमसे
जुदा-जुदा अब रास्ते है
यकीन अब ये होगा किसको
पांच बजे आफिस से
हम भी कभी घर को निकले है
खोना है जाने हमे क्या क्या
माइग्रेशन तेरे बाजार में
चाहा क्या , क्या मिला ,
माइग्रेशन तेरे बाजार में ...

(एक और पैरोडी ...)

--- अमित ३०/०७/२०१०

Wednesday, July 28, 2010

कहानी माइग्रेशन प्रोजेक्ट की ...

जाने क्यूँ लोग माइग्रेशन कराते है

जाने क्यूँ लोग कॉम्प्लीकेशन बढाते है

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

माइग्रेशन में देखिये तो बग ही बग है

माइग्रेशन हर दम डी-बग करना पड़ता है

माइग्रेशन में तो सर खपाना पड़ता है

कोड को हाथ लगाने से सब डरते है

टेंशन जाने क्यों जिन्दगी में भरते है

माइग्रेशन में जितने रिसोर्स हो , कम है

जाने क्यूँ लोग माइग्रेशन कराते है

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

माइग्रेशन में दिन डेस्क पर गुजर जाते है

माइग्रेशन में रात बीते घर जाते है

माइग्रेशन में हजार री-वर्क किये जाते है

माइग्रेशन में घंटों मीटिंग में बर्बाद जाते है

माइग्रेशन में हँसते चेहरे मुरझा जाते है

माइग्रेशन में तोंद बाहर निकल आते है

जाने क्यूँ लोग माइग्रेशन कराते है

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

माइग्रेशन में कुछ लर्निंग है

माइग्रेशन तो खुद की बर्निंग है

माइग्रेशन से तो बेंच पे ही अच्छे है

माइग्रेशन की ओनसाईट से देश में अच्छे है

माइग्रेशन में आगे से हम को जाना है

माइग्रेशन में जा मुफ्त में जान गवाना है

जाने क्यूँ लोग माइग्रेशन कराते है

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...

जाने क्यूँ , जाने क्यूँ ...


( मेरी पहली पैरोडी ...)

--- अमित २८/०७/२०१०

Tuesday, July 27, 2010

मैं जो मुस्काता हूँ ...

मैं जो मुस्काता हूँ
लोग मुस्कान पर जाते
चंद पल का साथ है
राह फिर अपनी
निकल सब जाते है ...
लिए वो आते है
शिकन अपने माथे पे
और लिए मुस्कान जाते है ...
पीछे मुड़ कर
न कभी दिखा किसी ने,
ज़ख्म,
इस दिल में भी गहरे है
मेरी मुस्कान के पीछे
मेरी पलकों पर
मेरे आँशु ठहरे है ...

--- अमित २७/०७/२०१०

Tuesday, July 20, 2010

मैं और मेरी तन्हाई ...


ये हमारे एक मित्र है .. इनके इस फोटो पर मजाक, मजाक और मजाक !!!
जरा गौर करे , कविता भूतकाल से वर्तमान में आती है और भविष्य में जाती है ...


--- अमित २० /०७ /२०१०

Monday, July 19, 2010

नया धमाल ...

पहाडो की ऊंचाई
और सागर की गहराई
नाप हम चुके थे
"पर" राक्षसों की सेना के
खुल अब और चुके थे
करना है कोई बड़ा धमाल
मनसूबे नये बन चुके थे
घुट्टी अपने दिमागों की
फिर सबने मिलाई
जायंगे एक "रिसार्ट"
वोट सबकी यही आई थी
सेना फिर हुई तैयार
और हमला हुआ ज़ोरदार
सागर से लड़ने का
तजुर्बा अब सब को था
इस बार तो हशर
उसका बुरा ही होना था
सागर ने तो मान ली हार
स्विमिंग पूल के भी छक्के छूटे
योग-आसन के नियम
सारे फिर हमने तोड़े
और खज़ाने,
सारे गड़े, हमने उखाड़े
दिन ढले तो भूख सताई
जम कर खाई माल मलाई
ताकत और हौसला अभी बाकी था
तो छीनने अपनी हड्डी को
फिर कुत्तों ने की खूब लड़ाई
"लोटो" ने फिर लोग लूटे
आज, कल में बदल चुका था
शरीर अपना टूट चूका था
डेरो का अपने तब रुख किया
सूरज चढ़े पीछे फिर होश आई
खाने पर हुई फिर से चढ़ाई
डोल्फिन का शिकार
अपना अगला निशाना था
वापस आ फिर
स्विमिंग पूल, थकान मिटाना था
घड़ी अब कुछ इशारे कर रही थी
२४ घंटो की सुनहरी यादे लिए
सेना वापस कूच कर रही थी ...
( लिटल इंडिया के मोरिशस के एक रिसार्ट में आराम फरमाने के अंदाज़ पर..
.वहां जो खेल खेले उनका हिंदी रूपांतरण ... )
--- अमित १८/०७/२०१०

Friday, July 16, 2010

हमको प्यार नहीं आता ...

शिकायत है उनकी
हमको प्यार नहीं आता
बने फिरते है शायर
इजहारे महोब्बत नहीं आता
जा कहीं, सीखे हम जरा
किसे कहते है प्यार
ताना अक्सर हमे दिया जाता
इन्ही नादानियों पे उनकी
हमको और प्यार आता
कैसे उन्हें कोई समझाए
अफ्सानाएं महोब्बत
लफ्जों से कम,
आँखों से बयां होता है
आँखों को पढ़ती है आँखें
और ज़ज्बात,
दिल समझ जाता है
ख़ामोशी की जो जुबाँ होती है
समझ उनको आती है
दिलो में जिनके
बस महोब्बत और महोब्बत होती है ...
--- अमित १६ /०७/२०१०

Tuesday, July 13, 2010

बुराई और मैं ...

हर हरफ मचा हाहाकार
हर कोई मचा रहा शोर
अरे घोर कलयुग है यह
फैला भ्रष्टाचार चहू और |
महापुरुष निकलते है
सत्य की खोज में
और मैं निकला ,
बुराई की खोज में ,
सोचा पहले बुराई मिलेगी
तब जड़ का पता भी मिलेगा |
मेरे हर बढ़ते कदम पर
मुझे बुराइयां मिलती गई
और मैं घबराता गया
जाने क्यों हर बुराई की जड़
मुझ पर आ ख़तम होती थी ...
--- अमित १३/०७/२०१०

Saturday, July 10, 2010

मत लिखो तुम वीर रस...

रह जाएगा फिर यह
चंद किताबों में बंद
मत लिखो तुम वीर रस ,
ना आएगा उसमें उबाल अब
रगो में ना दौड़ता लहू अब
मत लिखो तुम वीर रस,
सजाने को ड्राइंग-रूम अपना
बिक गई अब इंसानियत
मत लिखो तुम वीर रस,
पृथ्वीराज नहीं पैदा अब होते
जयचंद काम ना कुछ आयगा
मत लिखो तुम वीर रस,
हो चुके नपुंसक सब अब
मानेगा ना कोई यह सब
मत लिखो तुम वीर रस,
गर दिल ना मने फिर भी
तो दिखाओ जमाने को वीर रस
बदल जायंगे दिन तब सबके
और फिर कोई "चंदबरदाई"
फिर लिखेगा अमर वीर रस ...

(पता नहीं क्यों लिखा हैं , बस दिल में आया )

--- अमित १०/०७/२०१०

Wednesday, July 7, 2010

"मैनेजमेंट" माता ...

हे "मैनेजमेंट" माता
तेरे चरणों में
कोटि कोटि नमन
तू हमें अपना
अबोध बालक जान
और दे हमारी
इस करुण वंदना पर ध्यान !
जा आगे कहीं
अपनी सामर्थ्य से
तुझमे हमने लगन लगाई
न देखी गर्मी हमने
न सर्दी हमको छु पाई
बरसा जमकर सावन भी
पर बुँदे हमे छु न पाई
सूरज कब उगता है
और कहाँ है छुप जाता
आँखें उसे देख कभी न पाई
होली आई , गया दशहरा
दीपावली की भी हुई विदाई
अब पूछती हम से बहना
कब घर आओगे भाई ?
कडवे-कडवे घुट हमने पिए
भक्ति पर हमारी डिग न पाई
कल आप का संदेशा आया था
देख जिसे आंख्ने भर आई
भक्ति का प्रसाद मिला था
जिसके थे हम अधिकारी
सम्मान किसी और को मिला था ...
( आज के हर आफिस की हालत )
--- अमित ०७/०७/२०१०

एक और शिकार ...

बहुत दिन हुए,
लगा कोई शिकार हाथ !
गये कुछ दिनों से
कहीं थी नज़र अपनी
सोचा आज कर ले शिकार !
छोटी सी
यें चीज़ नज़र हैं आती
देखें जो कद काठी,
स्कूल को जाती
यें बालक नज़र है आती
और दोस्तों
गलती यहीं सब से हो जाती!
बत्ते भर के शरीर में
पहाड़ भर की आफत समाई !
करने की जो सोचो, दो-दो हाथ
अरे भाई बस मुहज़ोरी के,
लगता मनो ले छुट्टी
मधु-मक्खिया तुमसे मिलने आई !
शब्दों की फैंकी हर एक ईंट
पत्थर बन वापस आती है,
सोच अपनी भलाई
जुबान खुद चुप हो जाती है !
हिम्मत की पूछो बात
बड़े पहाड़ यें चढ़ जाती हैं !
देख इनका यह सौम्य रूप
लडको की फ़ौज भी घबराती है
जरा "साईखोम" से पूछो
क्या यें कहलाती हैं ???
(अपने एक सह-कर्मी / दोस्त पर )
---अमित ०६/०७/२०१०