Monday, July 5, 2010

भाग्य विधता...

मेरी आवाज नहीं पहुँचती उन कानो में
रहते है जो लोग ऊँचे मकानों में
खुदा ही जाने , कैसे शीशे लगे है
दिखता न कुछ, बंद हो उन मकानों में
लपते उठती है आग की हर शहर में
फरमाते वो आराम, हरम और मयखानों में
फर्क न पड़ता कुछ भी उन लोगो पर
चाहे रोज उजडती गोद, सुनी होती हो मांगे
मातमी है अब आलम यहाँ सारा
जाने वो भला क्या होता जावं मौत का ग़म
जान न जहाँ किसी ने "जीने" की उम्र में गवाई
क्यों कहलाते है वो हमारे "भाग्य विधता"
वर्तमान की जब हमारे कुछ कद्र नहीं
बदलना खुद हमको यह चलन होगा
गुहार से कुछ न हासिल हुआ, न होगा
हर ईंट का जबाब जब पत्थर से देंगे
सुन्हेरा तभी भविष्य हमारा होगा ...

(माओवादियों की बढती सरगर्मी और सरकार की नरमी पर )
---अमित ०४/०७/२०१०

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया सफल रचना!

Vaibhav said...

Excellent lines Amit. Appreciate those....keep it up.......