Friday, December 25, 2009

इश्तिहार बोर्ड...

बात हैं गये रविवार की

शाम ढले बैठे थे बाग़ में

किनारे की दूकान पर

आकर गाड़ी एक बड़ी रुकी

आदमी उससे उतरे दो

निकाल एक सीढ़ी

झट छत पर जा पहुंचे वो

हरकते कुछ संदिघ न थी

कौतुहल वश निगाह उन पर टिकी

सामने था उनके एक "इश्तिहार बोर्ड"

संभाला उन्होंने तब अपना समान

यकीन जानिये

पांच ही मिन्टो में ख़तम किया अपना काम

सामने था अब हमारे, ६*१० का नया इश्तिहार

दो दिन गये फिर निगाह फिर उस पर गई

देखा, जो था दाढ़ी बनाता आदमी

शरबत पी इठलाती लड़की बनी

दिखा उसे जब आज सुबह , चौक कर आँखें खुली

पाया आज फिर एक नया इश्तिहार

"यह जगह खाली हैं , आप दें अपना इश्तिहार" !!!

(सच्ची घटना पर आधारित )

--- अमित २०/१२/2009

मुद्दे ...

दुनिया घिरी हैं आज मुद्दों से

हल किसी से न एक होता !

सोचो अगर मेज से हट

फैसला इनका खुले मैदान होता !

कश्मीर का मुद्दा क्रिकेट से अगर तय होता

"शारजहाँ " में तो "पाक" कश्मीर हम से ले गया होता !

और रंगभेद को ले कोई सिडनी गया होता

"पोंटिंग भैया " ने तो आस्ट्रेलिया को क्लीन चिट दिला दिया होता !

आतंकवाद अगर "वहाईट हाउस" छोड़ "अफगानिस्तान" में हल होता

कौन जाने आज "ओबामा" नहीं "ओसामा" विश्व नेता होता !

परमाणु अप्रसार को अगर "लालू " को सौपा होता

सारा "युरेनियम" उसकी भैंसों ने पचा दिया होता !

सोचो बेमानी , घूसखोरी , भर्ष्टाचार का कॉम्पटीशन होता

धन्यवाद हमारे नेताओं को ,

स्वर्ण , रजत और कांस्य सब इन्होने "भारत" के नाम करा दिया होता ...

--- अमित ३/१२/२००९

गलत-फ़हमी...

गलत तो नहीं था वो
और शायद मैं भी नहीं
या कहूँ कि कोई नहीं
गलत तो हालात थे
और उनका अंजाम
"गलत-फ़हमी"...
येँ कब आ गई
उन दोनों के बीच
और दिखाया अपना रंग
पता ही नहीं चला ...
जिस्म में जान से थे दोनों
और यों जुदा हुए
जैसे कभी मिले ही न हो दोनों ...
हालात ने इस कदर तोडा हम को
सोच सके हम कुछ और
ऐसा भी न छोड़ा हम को...
जिन्दगी के उस दोराहे पर
जुदा हुए हमारे रास्ते
दूर ... बहुत दूर
जब जिन्दगी आज मुझे ले आई
जाने क्यों "तेरा" ख्याल आया ...
--- अमित २६ /२/२००९

कहानी एक शब्द की...

सुनाते हैं कहानी एक शब्द की
शब्द येँ देखिये बड़ा हैं भारी
और विचित्र बात येँ , नाम इसका "आभारी"
व्याकरण हमारी हैं कहती
गर जो जोड़ा "अ" उल्टा होता अर्थ
नाम को देखो हुआ "अनाम"
और मानुष बन गया "अमानुष"
कहानी इस शब्द की हैं जरा उलटी
होते अगर आप किसी के "आभारी"
इंसान वो पड़ता आप पर भारी
आभार व्यक्त करना तो क्रतज्ञता हैं
अर्थ को इसके न समझना क्रत्घनता हैं
आज मगर क्रतज्ञता, क्रत्घनता से हारी हैं
और हराने वालो का जग "आभारी " हैं ...
--- अमित २/१२/२००९

Wednesday, October 21, 2009

एक घटना ...

इसे साहस कहे या दुस्साहस

आधुनिकता कहे या बे-शर्मी ,

फैसला आप पैर छोड़ता हूँ

देखा जो इन आँखों से

किस्सा आप से वो कहता हूँ

करता था एक बस स्टेशन पर

श्री-मति जी का मैं इंतज़ार

माहौल बडा ही नीरस था

और बढती चहल कदमी से

खोता जा रहा धीरज था

निगाह हमारी आवारा पंछी सी

कहाँ एक जगह ठहरती हैं

इधर उधर घूम

साथ लगी बेंच पर पड़ी

अभी तक थी जो सुस्ती

वो अब अचरज बनी

बैठा बेंच परएक प्रेमी युगल था

फूटती दोनों से बडी प्रेम उमंग थी

गुजरने के लिए बीच

हवा को भी जगह तंग थी

देख कर उनके हाथों कि शरारत

हमको होती जा रही थी हरारत

जिस तरह वो थे एक दूजे में गम

देख कर उनको होते थे होश अपने गुम

उनकी देख येँ हरकत दिमाग अपना चल गई

जो देखी घटना, वो कविता बन सामने आ गई ...

--- अमित २२/११/०९

Wednesday, August 26, 2009

ऐसा बस यहीं होता...

देखा हमने एक नज़ारा
महाशय एक गरिया रहे थे
हाथ जोड़ थानेदार साहब
बस मिमिया रहे थे
उल्टा चोर कोतवाल को डांटे
ऐसा बस यहीं होता ।
कर जमा शेरो की फौज़
मुट्ठी भर गिदडो से घबरा रहे
ऐसा बस यहीं होता ।
छोटी ' इ ' की मात्रा
उलटी नही सीधी लगती
हिन्दी के गुरुओ को
अंग्रेज़ी का छात्र
देता यह ज्ञान
ऐसा बस यहीं होता ।
छोड़ के अपने संगी साथी
दूर वेबसाइट पर
बनाता नए रिश्ते इन्सान
ऐसा बस यहीं होता ।
---अमित (२/०९/०९)

Saturday, August 22, 2009

चरित्र चर्चा...

बडे एक शापिंग मॉल के

महंगे एक कैफे में

कर रहीं थी वो चुहल !

चर्चा बड़ी ही ख़ास थी

शर्मा जी के बेटी

जो दिखी वर्मा जी के बेटे के साथ !

एक ने कहा, " देखा "पर " निकल आए है !"

दूजी कहाँ चुप रहने वाली थी

अरे आप को नही होगा पता

"सुबह से शाम गुजरती साथ है "

आज कल तो बच्चो का चलन ही खराब है !

चर्चा चलती गई और कालिख पुतती गई !

घनन -घनन तभी मैडम का फ़ोन घंनाया

हंस खिलखिला कर दो बातें हुई

थोडी देर में मिलने का समय ठहराया !

किया सहेली को विदा अपनी

और घर फ़ोन लगाया

बेटा , पापा को बोलना

मम्मा को अर्जंट मीटिंग का कॉल आया,

आते घर शाम को देर होगी जरा !

थोडी देर गये पापा का भी फ़ोन आया था

फंस गये है वो मीटिंग में ये फरमाया था ,

मम्मा, बेचारी को कहाँ था पता

पापा की मीटिंग है उसी सहेली के साथ

चरित्र चर्चा चल रही थी जिसके साथ ...

--- अमित २२/०८/०९

Sunday, August 9, 2009

फर्क कहाँ हुआ ???

उतारे जो उसने
कपड़े अपने तन से
मिटाने को भूख
अपने पेट की और
बेचा अपना शरीर
नाम हुआ "वेश्या"...
उतार कपड़े अपने
जब चलती
वो बल खाके
आगे एक कैमरे के
मिलती ख्याति
होता नाम...
सौपती जब खुद को
करने नया अनुभव वो
बस चंद रातो को
फिर मिलता नाम
"वेश्या" नहीं अब
सम्मानित स्त्री का स्थान ...
क्या अलग दोनों ने किया???
कमाल है
फर्क फिर भी हुआ यहाँ...
(रास्ट्रीय स्तर की एक महिला खिलाडी के धन और काम के आभाव में वेश्या वर्ती में आने पर ...)
--- अमित ०९/०८/०९

Sunday, May 3, 2009

कहाँ जाऊं मैं ...

दिल करता है

ज़ोर से चिल्लाऊं मैं

सामने है जो दिवार

उस से सर टकराऊं मैं

देखता हूँ जब आइना

करता है दिल कर दूँ चूर आइना मैं

घुटा है दम में इस चार दिवारी में

तोड़ के ये बंदिशें भाग जाऊं मैं

सभी तो यहाँ अपने ही है

इल्जाम किस के कत्ल का लूँ मैं

अपनों को कत्ल कर नही सकता मैं

हौसला नही कर लूँ ख़ुद -कुशी मैं

सोचता हूँ अब

जहाँ न ढूँढ सके कोई मुझे

जा कर ऐसी जगह खो जाऊं मैं ...

--- अमित ३ /०५/२००९

Wednesday, April 29, 2009

उस्तादों के उस्ताद...

करनी जो हो किसी की खिचाई
सबसे आगे नज़र हम आए
बात बे बात मारने में
महारत जो हमने पाई
बस एक बार भिड कोई हमसे जाए
समझो शामत उसकी आई
हुई न जब तक मान - मुनव्वल
किसी की न जान बची
दिन-ब-दिन बढता गुरुर जा रहा था
नाचीज़ अब हर कोई हमें नज़र आ रहा था
सोचता तो ऊंट भी है
नही है कोई उसका सानी
आता वो भी जब नीचे पहाड़ के
हो जाता गुरुर उसका भी पानी
हुआ हाल अपना भी उस ऊंट सा
हुआ जब सामना उस शख्स का
समझा जिसे बस धूल था
अपनी बातें, उलटी हम पर ही आती थी
जुबान अपनी आगे उसके खुल न पाती थी
नौसिखिये सी हालत अपनी नज़र आती थी
हम तो थे उस्ताद , मगर
मिल गये आज हमे " उस्तादों के उस्ताद "
सबक अच्छा हमको सिखाया
दूर रखो कला से गुरुर ,
ये गुरुर न कभी किसी के काम आया ...
--- अमित २९ /०४/०९

Sunday, April 19, 2009

जुगाड़ की कहानी ...

बचपन से सुना है एक शब्द हर मोड़ पर ...
नाम है उसका "जुगाड़ "
जो भी मिलता "जुगाड़ " का चर्चा करता ...
कैसे हुआ ये पैदा
इसकी भी अपनी कहानी है ,
जो पेश अपनी जुबानी है ...
हुई जब चाह एक बच्चे की,
किया गया "जुगाड़" के बेटा हो ...
हुआ बडा जब वो बच्चा,
किया "जुगाड़" स्कूल उसका अच्छा हो ...
बच्चे मास्टर जी के भी थे,
किया "जुगाड़" के कुछ टयूशन हो...
स्कूल , कालेज हुआ अब पुरा ,
लगा "जुगाड़" की डिग्रिया जमा ...
डिग्रिया तो आ गई अपने हाथ ,
किया "जुगाड़" नौकरी बाड़िया हो ...
"जुगाड़" सारे काम अपना कर गये ,
पटरी पर आ गई जीवन की गाड़ी ...
अब तो बच्चा जवान हो चला ,
दोहरानी है फ़िर यही कहानी ...
"जुगाड़" भी गज़ब है ,
देता "दो बूँद जिन्दगी की "...
चाहती है दुनिया ,
हमसे मिल जाए उनको भी ये "जुगाड़"...
जानते वो नही ,
चलते हम हिन्दुस्तानी लेकर नाम "जुगाड़"...
-- अमित १९ /०४/२००९

Tuesday, April 14, 2009

जलाई "जोत" ...

कुछ कर गुजरने की तमन्ना दिल में थी

अपने लिए तो सबको होती है

दुसरो के लिए , दिल में उसके थी ...

भीड़ से अलग रास्ता बनाना

काम येँ इतना आसान नही

आसानी से जो मिल जाए

वो मकाम , उसका मकाम नही ...

तैयारी अपनी भी पूरी थी

पता था ज़माना यों साथ न आएगा

ना जाने कब और कहाँ

यें ज़माना उंगली अपनी उठाएगा...

डर कोसो उसके कदमो से दूर था

पता था,

चाह है अगर रौशनी की

जलाना कुछ तो जरूर होगा ...

जले भी , तडपे भी ,

देख बदलते लोगो को

दिल दुखा भी ...

कदमो को पीछे हटा लेना

उसने कहाँ सीखा था

ऐसे लोग कहाँ मंजिल तक जाते है

मंजिल ख़ुद उनके क़दमों तक आती है ...

जीत आख़िर सच की ही होती है

उसकी दिखाई "जोत "

ज्वाला आज बनी जाती है ...

काम उसका हुआ पूरा

बारी अब हमारी है

जलाए यें जोत रखना

जिम्मेदारी अब हमारी है ...

( अपने गुरु जी को समर्पित )

--- अमित १४/०४/२००९

Monday, April 6, 2009

बे-शर्मी ...

सुनते है
शर्म आंखों में होती है
मतलब हुआ
ये सब के पास होती ...
फ़िर क्यों
हमेशा ये शर्म नही देती दिखाई
राम ने आँखें तो सब को दी ...
सम्भव है
वहां भी किसी ने दलाली खाई
किसी को दी ज्यादा
और कर दी किसी के साथ बे-वफाई ...
हमारे साथ भी कुछ यूँ ही हुआ
वफा हमारे हिस्से में और
उनको मिली बे-वफाई ...
बे-शर्मी के इनकी चर्चे आम है
और हम
अपनी शर्म से परेशान है ...
बाज ना आते अपनी हरकतों से यें
जब देखो
इधर - उधर टांग अपनी अडाते यें
और मुंह की खाने के बाद
शेखी और बघारते यें...
देख इनकी ये बे-शर्मी
तरस हम इन पर खाते है
ख़ुद हम शर्मा कर
दुसरे रस्ते हो जाते है ...
बे-शर्म ये भी कम नही
दिखाने कोई नया करतब
फिर यें पीछे पीछे चले आते है ...
--- अमित ६/०४/०९

Monday, March 30, 2009

कुर्सी और यें ...



कुर्सी,


इस शब्द में ही अजीब सा खिंचाव है


देखते ही अपनी और खिंच लेती है


और जाते ही आगोश में इसके


जैसे मिट ही जाता सारा दर्द...


तभी तो देखा है


जितना बुड्ढा होता कोई


उतनी है बडी कुर्सी लेता ...


पता नही ,


कुछ को ये कुर्सी रास क्यों नही आती


या कुर्सी को "कोई" पसंद नही आता


और लेती कुर्सी किसी को तडपाने का मज़ा ...


देखते ही इनको कुर्सी को सूझता मजाक


ऐसा ही कुछ होता इनके साथ


जब होते ये जनाब कुर्सी के पास


उग जाते जैसे कांटे कुर्सी में


जिन्हें देख भागते फिरते यें ...


दूर से यें देंखे तो फूलों सी लगती कुर्सी


और बैठते ही इनके


अंगारों सी दहकती कुर्सी ...


खींचती कभी चुम्बक की तरह


और बैठते ही इनके


बिजली का झटका दिखाती कुर्सी ...


गज़ब है ये कुर्सी


जाने क्यों इनको इतना तडपाती


है ये बैरन कुर्सी ...


--- अमित ३० /०३ /२००९

Sunday, March 22, 2009

घुमने गये पार्क ...


कई दिन गये ,

आज फ़िर गये हम

घुमने वही "पार्क"...

छोटे छोटे पेड़ों

फूलों की कियारियों

और सुंदर फ़वारे से सजा ,

बडा सुन्दर लगता वो "पार्क"...

आज तो दर्शय था बहुत प्यारा

छोटे छोटे , नन्हे - मुन्नों से भरा था वो "पार्क"...

इधर देखा वो छोटा बच्चा

छोटे छोटे कदमो से भागा जाता था

भाग रही थी माँ उसके पीछे

हाथ मगर कहाँ वो उसके आता था ...

एक कूदता पानी में फ़वारे के

दूसरा देखा उसे घबराता

और जा अपनी माँ पास छुप जाता

मन फ़िर करता पानी में कूदे

क्या करे वो डर फ़िर जाता ...

वो देखा गेंद से बालक एक खेलता

मारता कभी पाँव से गेंद को

और कभी ख़ुद ही गिर जाता

हो खडा और ज़ोर लगा पाँव मारता ...

देख देख बच्चों के करतब
बडा मजा आता था

मन तो अपने बचपन में भागा जाता था

काश रोज़ ऐसी शाम आए

जो बचपन में मेरे मुझे ले जाए ...



--- अमित २२-०३-२००९




Monday, March 9, 2009

ठहराव...

ठहर सी गई है जिन्दगी;

अब कुछ ऐसा लगता है ...

आ कर एक दोराहे पर

कुछ सोच में पड़ गई है जिन्दगी

अब कुछ ऐसा लगता है ...

करने को तो है बहुत कुछ अभी

जाने जान हाथों से निकल गई हो

अब कुछ ऐसा लगता है ...

शयद सुबह करीब ही है

घना हुआ अँधेरा सा लगता है

मैं तो चाहता हूँ नींद से उठना

जाने क्यों शरीर थका सा लगता है ...

कुछ तो हो ऐसा अब

जो कर दे मुझे सागर सा चंचल

ये ठहराव अजीब सा लगता है अब ...

पता नही क्यों ...

पता नही क्या था वो
समय का बहाव
या;
मेरे दिल में
कुछ ज़ज्बात दबे थे
जो बह निकले शब्द बन कर
और नाम हुआ कविता
पता नही ...
आज भी , वही मैं हूँ
वही मेरा दिल
वही मेरी ज़ज्बात
गर नही है कोई तो
बस शब्द ,
पता नही क्यों ...

Friday, March 6, 2009

शांत रहो ...

हर गये दिन जुमला एक

कानो में हमारे पड़ता हैं

छोड़ा हमको नही जायेगा

हर हिसाब हम से

एक दिन लिया ज़रूर जाएगा ,

कह कर कोई

गुस्से से अकड़ता हैं ...

आदत से हम भी मजबूर हैं

गुस्से पर मुस्काते हैं

जले हुए दिल को ,थोड़ा और जलाते हैं ...

येँ जनाब भी , जरा हट के हैं

सोचते हो हैं , जाने क्या कर देंगे

पकड़ कर कान चाँद का

जमीन पर ला रख देंगे

और पकड़ कर दुम शेर की

बना दरबान ,

खडा दरवाजे पर कर दंगे ...

धाक जम मगर कहीं न पाती हैं

बनती - बनती बाजी इनकी , बिगड़ ही जाती हैं

पासे जाने पलट कैसे जाते हैं

होकर इनका , इन्हे ही चिडाते हैं ...

खिसाय्नी बिल्ली सी इनकी हालत रहती हैं

और दुम सदा टांगो में छिपी रहती हैं ...

पडे जब भी उस पर पैर हमारा

"शांत रहो - शांत रहो "

गूंजता हैं कानो में येँ नारा ...

--- अमित

आला रे आला ...

आला रे आला

SPICE-08 आला

सब टीमो ने अपना

परचम संभाला

आला रे आला
SPICE-08 आला

"सुखोई" जहाँ

ताकत में मदमस्त है ,

"पृथ्वी " भी वहां

सम्मान बनाये रखने की जुगत में व्यस्त है .

"अग्नि " और "भार्मोस"

दोनों तरफ़ से न कुछ आहट है

कमजोर न कोई इनको समझो

रणनीति के गुरुओं से भरपूर

दोनों टीमो की पुरी तैयारी है

देखना बस यह है

तरकश में तीर किस के कितने है

अब मैंदान में आने की बारी है ...

(SPICE : A sport event in Infosys for CCD Project...)

--- अमित