Wednesday, April 29, 2009

उस्तादों के उस्ताद...

करनी जो हो किसी की खिचाई
सबसे आगे नज़र हम आए
बात बे बात मारने में
महारत जो हमने पाई
बस एक बार भिड कोई हमसे जाए
समझो शामत उसकी आई
हुई न जब तक मान - मुनव्वल
किसी की न जान बची
दिन-ब-दिन बढता गुरुर जा रहा था
नाचीज़ अब हर कोई हमें नज़र आ रहा था
सोचता तो ऊंट भी है
नही है कोई उसका सानी
आता वो भी जब नीचे पहाड़ के
हो जाता गुरुर उसका भी पानी
हुआ हाल अपना भी उस ऊंट सा
हुआ जब सामना उस शख्स का
समझा जिसे बस धूल था
अपनी बातें, उलटी हम पर ही आती थी
जुबान अपनी आगे उसके खुल न पाती थी
नौसिखिये सी हालत अपनी नज़र आती थी
हम तो थे उस्ताद , मगर
मिल गये आज हमे " उस्तादों के उस्ताद "
सबक अच्छा हमको सिखाया
दूर रखो कला से गुरुर ,
ये गुरुर न कभी किसी के काम आया ...
--- अमित २९ /०४/०९

4 comments:

Vinay said...

अच्छी कविता है

---
तख़लीक़-ए-नज़रचाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलेंतकनीक दृष्टा

nishusharma said...

kavita me dam hai...

aman said...

nice
This is a nice poetry

Esther Hampton said...

यह लेख हमें दिखाने में मदद करता है कि घमंड कितना हानिकारक हो सकता हैं।