ये जो जिन्दगी है
बहुत ही अजीब है ,
जिसने कहा,
मैं समझता हूँ
तुझे ए जिन्दगी
ख़ूब हंसती है
उस पर ये जिन्दगी
हम ने सोचा
आज तो पत्थर मिलेंगे ,
डूबे दिल से निकले
और मोड़ पर हम को
अपनी बाहों में भरते
दो हाथ मिले
मायूस बैठे थे
दूर जा खुद से भी
छिपे बैठे थे
छिपे बैठे थे
आया मीठी यादों का झोंका
दिल में हुई गुदगुदी
और अपनी आंखों में
यादों की नमी ले बैठे
सच है ,
बहुत कुछ है तेरे दामन मे
ए जिन्दगी
ए जिन्दगी
हमे बहुत मिला है
हमे बहुत मिलेगा
हमे बहुत मिलेगा
फिर भी ना जाने क्यों
हम चिन्ता कर बैठे ...
(समीर लाल जी को समर्पित , कुछ यादें ताजा करने पर )
--- अमित १७/०९/०७
4 comments:
अमित,
बहुत आभार इतनी सुन्दर और गहरी रचना समर्पित करने के लिये.
सच में, कौन समझ सका है इस जिन्दगी को. क्या क्या याद दिला दे, क्या क्या खेल दिखा दे, कोई नहीं जानता.
पुनः आभार.स्नेह बनाये रखें.
बहुत सुंदर कविता…
जिंदगी के मर्म स्पष्ट कर दिये…
जो समझा वो भी जिंदगी न समझा वह भी जिंदगी…।
gajab likha hai dost
aaj main, aapki ek ke baad ek kavita pad rahan hoon - sab ek se bad kar ek hain.
salutes and hats off to you.
bahut hi aacha likha hai aur bahut hi gahri soch..
bahut accha laga pad kar.
i read this poem today and liked it . good work amit
rachna
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