रहते हैं जब पास हमारे
ख़ूब हंसाते , ख़ूब धमाल कराते है
जाते है जब दूर ज़रा
भावनाओं में दूर बहा ले जाते है
जलाती है जब भी जिन्दगी की धुप हमे
छाया बन हमारे साथ साथ आते है
छाता है जब भी निराशा का अँधेरा
आशा का दीप ये जलाते है
नाम नही कोई इनके रिश्ते का
कभी बंधु, कभी दोस्त
कभी सारथी, कभी गुरू
रुप-रुप में ये मिल जाते
रहे चाहे कहीँ भी
मगर दिल के बहुत पास आ जाते हैं ...
--- अमित 16/09/०७
2 comments:
प्रिय अमित
कविता पढी, अच्छी लगी. इसमें छुपा संदेश बहुत अच्छा लगा.
मानव जीवन आपसी संबंधों का एक बहुत बडा जाल है. जब तक ये सारे जड एवं चेतन बंधन (=संबंध) नही बनते तब तक हमारा जीवन सिर्फ बालिश रहता है. लेकिन जब वह बालक बढता जाता है उसके साथ साथ वह जडचेतन के साथ अपने संबंधों को पहचानने लगता है एवं उनका पोषण करने लगता है.
अफसोस यह है कि कई बार हम जीवन में जरूरी सारे संबंधों को पहचान नहीं पाते है एवं इस कारण उस "जाल" मे कई जगह आपस में बांधने वाले गठानों के बदले खालीपन रह जाता है.
इस कविता में इस तरह के कई संबंधों को तुम ने उभार कर बताया है, एवं यह कई लोगों को इस विषय में सोचने को प्रोत्साहित करेगा.
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हे प्रभु, मुझे अपने दिव्य ज्ञान से भर दीजिये
जिससे मेरा हर कदम दूसरों के लिये अनुग्रह का कारण हो,
हर शब्द दुखी को सांत्वना एवं रचनाकर्मी को प्रेरणा दे,
हर पल मुझे यह लगे की मैं आपके और अधिक निकट
होता जा रहा हूं.
ban__ bahut accha likha hai! :-)
durga
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