Thursday, September 6, 2007

सच का स्वाद...

क्यों ऐसा होता है
सच का स्वाद,
ज़रा कड़वा होता है
कहते हम हैं; सच बोलो
जब दीखता हमे कोई; आईना है
दुश्मन वो अपना हो जाता है
उसके बोल
कोडों से तन पर पड़ते है
देख उसे
आंखों में लहू दौड़ आता है
साथ खडे हो उसके तो
साँसों बोझिल हो जाती है
भीड़ में भी रह कर
वो अक्सर तन्हा क्यों हो जाता है
जो होता था कल तक प्यारा
क्यों अजनबी सा दुबारा हो जाता है
याद मगर उसकी तव आती है
जब ठोकर खा टूटा भ्रम हमारा होता है
--- अमित ०६ /०९/०७

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