Monday, August 8, 2011

सच फिर आज होता पाया मैंने...

बड़े अनमने मन से

किताब को उठाया था मैंने...

आखिरी बार, कब क्या पढ़ा था

यह भी कुछ याद न था मैंने...

एक एक अक्षर को जोड़

कुछ शब्द पढ़े मैंने...

कुछ शब्दों को जोड़

कुछ पंक्तियाँ पढ़ी मैंने...

ज्यों ज्यों पंक्तियों पढ़ा

खुद में अंतर पाया मैंने...

जो थीं अब तक बंद

खुलता उन आँखों को पाया मैंने...

रोज़ की दौड़ धुप में

छुपी थी जो कहीं कब से

हलकी सी एक मुस्कान को ,

होठों पर अपने पाया मैंने ...

जड़ सा जो होगया था

मस्तिष्क मेरा,

नई कुछ कल्पनाओं में

खोया उसको पाया मैंने...

"पुस्तक" होती है, एक सच्चा मित्र

कथन यह फिर याद आया मैंने...

अच्छी "लिखाई", दिखाती है नई राह

सच फिर इसको आज होता पाया मैंने .

( मंजुलता सिंह जी की कुछ कविताये पढने के बाद .. )


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