Tuesday, June 29, 2010

पहली बार देखा ...

यह करिश्मा हमने पहली बार देखा
जमीं पर चलता माहताब देखा
जो बस अकड़ता ही रहता था
उस आफताब को शरमाते देखा
शमा पर परवानो को जलते तो देखा था
माहताब पर उनको मरते, पहली बार देखा
जलने की चाह में,
आज हमने भी छु लिया माहताब को
फिर जमीं नाचते तारो को पहली बार देखा ...

(सोचा था बेगम को खुश करने के लिए कुछ अच्छा सा लिखूंगा, मगर हो कुछ और ही गया!!!)

--- अमित २९/०६/१०

Sunday, June 27, 2010

बदली फिज़ा...

बदल गई है फिज़ा मेरे गाँव की
बुलाये जो न आता था सावन
जाने का नाम अब न लेता है
सुनाया करता जो मधुर गीत
"जी" बस अब हमारे जलाता है
दोमासी होता था जो पतझड़
छह माह गये, अब भी इतराता है
बहार तो मानो, मुह ढक सो गई
जगाने का हर जातां बेकार जाता है
चाँद भी मानो कलाएं अपनी भुला
पूनम तो गली हमारी भूली
और मावस करती रोज ठिठोली
बस ये एक पुरवाई ही तो है
हालत जिसको हमारी समझ आई
सरे-शाम खूब यह बहती है
जानती है ये
मेरी महबूब, दूर -बहुत दूर रहती है ...
--- अमित २७/०६/२०१०

कला ...

भीड़ भरे उस बाज़ार के
दूर एक कोने में
लिए एक कुर्सी
बैठी थी वो !
हाथ में थी
चंद पेंसिले,
कुछ कागज़
और पास पड़े थे
कुछ नमूने
उसकी कला के
उतारे थे जो उसने
अभी कागज़ पर !
घिरी लोगो की बीच
तारो संग चाँद सी
नज़र वो आती थी,
लिए होंठों पे मुस्कान
बिजली से हाथ
उसके चले जाते थे,
देखते ही देखते
भाव आप के चेहरे के
कागज़ पर उतर आते थे !
सच ही कहा है लोगो ने
कला ,
छिप न कभी पाती है
रखो सात तालो में
रौशनी इसकी
फ़ैल ही जाती है !!!
( मोरिशस के प्रमुख बाज़ार में एक छोटी लड़की लोगो के पोट्रेट बना रही थी, उसकी कला और रफ़्तार पर )
--- अमित २६/०६/२०१०

Thursday, June 24, 2010

शायद कोई समझा दे ...

कुछ लिखी हमने
और कुछ बनाई
कविताये यार !
प्रतिकिर्याएं आई
खुशियाँ संग
अचरज भी लाई !
कुछ सरहानाये आई
दिल को मगर
आलोचनाये ज्यादा भायी !
अचरज था
हरियाली उनके हिस्से आई
जो थी गईं बनाई
और सुखा वहां पड़ा
जहाँ थी दिल की गहराई !
--- अमित २४ /०६/२०१०

Friday, June 18, 2010

चंद कलियाँ गुलाब की...

चंद कलियाँ गुलाब की
रोज़ तोड़ लाता हूँ मैं
दिखती है इनमें मुझे
अब सूरत ज़नाब की !
चंद कलियाँ गुलाब की ...
जरुरी नहीं है अब मुझे
आब-बो-हवा कश्मीर की
महका रही है घर मेरा
ख़ुशबू ज़नाब की !
चंद कलियाँ गुलाब की ...
जायज है अब मस्रुह्फियत मेरी
चुन चुन के आ रही है
यादें ज़नाब की !
चंद कलियाँ गुलाब की ...
चर्चे है रोज़ मेरे बाज़ार में
दिखला रही है रंग मुझ पर
दीवानगी ज़नाब की !
चंद कलियाँ गुलाब की...
--- अमित १८/०६/२०१०

Monday, June 14, 2010

और हम बन गये कवि...

रखना था संजो कर
जीवन के अनमोल पल
सुझा न जब कोई उपाय
डायरी ली हमने एक बना
दर्ज हो रहे थे उसमें
जीवन के कुछ ख़ास पल
आलसी मन हमारा
भटकने अब लगा था
लिखना डायरी हमे
नीरस लगने लगा था
उपाय कुछ अब
एक तीर से दो शिकार
सा हमको करना था
हर घटना को हमने
विस्तृत से संछिप्त में समेटा
गद्द्य को पद्द्य में लपेटा
घटनाएं अब
कविताये बनने लगीं
नीरसता अब दूर हुई
आनंद कविता में अब आता हैं
हर गये दिन
यादों का एक अध्याय जुड़ जाता हैं ...
(वास्तविकता यही हैं :) )
--- अमित १४/०६/२०१०

Sunday, June 13, 2010

क्या हैं कविता ...

यह सवाल कई बार
मैंने खुद से पूछा
आखिर क्या है कविता ?
एक ही जबाब हर बार मिला
आँख और जुबान है कविता
लगता अटपटा मेरा जबाब
गर करे जरा गौर
तो मायने रखता ये जबाब
यों तो आँखे रखते सभी
देखे जो सब से हटके
वही होता कवि ...
जज़्बात होते सबके पास
ब्यान करे जो उनको
वही होता कवि ...
मिलाया जब
अपनी आँख और जुबान को
बनी तब कविता
कहा इसीलिए
आँख और जुबान है कविता ...

--- अमित १४/०६/१०

आओ चले, करे सागर फतह ...

चढ़ चुके है हम पहाड़
फतह करना है अब सागर यार
रट सबने लगाई थी
जाना एक टापू पर है
होकर एक नाव में सवार
तैयारी की जिम्मेदारी
फिर सौपी गई हम पर
कमान हमने फिर संभाली
ले साथ एक दो का
तैयारी पूरी कर डाली
दिन, जगह सब तय था
इंतज़ार बस आने का था
दौड़ा-दौड़ा फिर दिन वो आया
सामान संभाले अपना
कारवां सागर तट पर आया
सागर से ज्यादा जोश
ले रहा हिचकोले था
और सागर भी स्वागत को
बाहें अपनी खोले था
"कोरल बेले" था उस नाव का नाम
सवार थे जिस पर हम
जैसे जैसे नाव सागर के भीतर जाती थी
लहरें अपना रूप दिखती थी
जोश अभी भी गरम था
पर देख बढ़ता जोश लहरों का
चुपके चुपके हो रहा अपना कम था
खाती हिचकोले नाव आगे जा रही थी
मस्ती अब जरा किश्तों में आ रही थी
सागर को अब मस्ती ज्यादा सूझी
लहर एक ऊँची , नाव से टकराई
वो देखो लड़कियों की फ़ौज
उड़ कर अपनी जगह से
नाव के फर्श पर आई
हालत लडको की भी पतली थी
बैठे जो नाव के किनारे थे
नज़र भीतर सीट से चुपके आ रहे थे
होले होले नाव अपनी टापू पर आई
जान में जान लोगो की आई
सागर फतह तो हमने कर लिया
पर प्रकर्ति के आगे हैसियत अपनी नज़र आई...
--- अमित १४ /०६/ २०१०

Friday, June 11, 2010

खुशियों के पल ...

बात एक छोटी सी है
जरा कम समझ आती है
करो अगर इंतज़ार
कभी खुशियाँ नहीं आती है
करते करते इंतज़ार
लाखो खुशियाँ रेत सी
हाथों से निकल जाती है
कुदरत का दिया हर पल
बहुत ही है अनमोल
अभी देखो निकल गया एक पल
अब न आयगा ये कल
साथ ये भी लाया था खुशिया
फर्क सिर्फ इतना है
किसी ने समझा और अपनाया
किसी ने न समझा और गवाया ...

--- अमित १०/०६/२०१०

Thursday, June 10, 2010

तुम्हारा संदेशा ...

खटखटाया था कल
दरवाजा किसी ने
और टूटी ख़ामोशी
जाने कितने दिन बाद
मेरे घर की
गये हो जब से तुम
सब खामोश हो गया
दिनों बीते आवाज़
अपनी भी सुने
घूम कर हर दिशा से
लौट आती है नज़रे
बस घर के दरवाजे पे
और जोहते है बाट
कान एक दस्तक को
छोड़ चुकी है साथ मेरा
परछाई भी अब
और लगी है
खोजने तुम को
हर सूं अब...
खोला जो दरवाजा
डाकिया आया था
ख़ुशी के एक लहर दौड़ गई
संदेशा वो तुम्हारा लाया था ...

--- अमित १०/०६/२०१०

प्यार का मरहम ...

यह जरुरी नहीं
हर बात ब्यान
लफ़्ज़ों से हो
यह जरुरी नहीं
हर ग़म का हिसाब
आसुओं से हो
जरुरत नही सहारे की
तेरे ज़ज्बातो को
पाने को राह
मेरे दिल की
उठी हर टीस
तेरे दिल की
तोडती दम अपना है
पा कर राह
मेरे दिल की
अहसास है मुझे
तेरे दिल से उठते
हर दर्द का
न तू घबरा
न हो बेचैन
तेरे इन हरे जख्मों
पर होगा
मेरे प्यार का मरहम ....
--- अमित ०९/०६/२०१०

Tuesday, June 8, 2010

बाज़ार ...

यहाँ लगा है एक बाज़ार
बोलो क्या खरीदोगे ?
इज्ज़त किसी लड़की की लोंगे
या
दाम किसी खून का दोंगे ?
चोरी , डकैती और गबन
ये सब भी है अपने पास
आप जो करे मांग
"हवाले" के भी है हवाले
हमेशा खुला है हमारा बाज़ार
बे-धडक आये और
पसंद अपनी बताइए
पसंद आप की और
दाम हमारे है
बस दाम चुकाइए और
सामन साथ ले जाइए ...

(अपने देश की क़ानून और न्याय वयवस्था पर )

--- अमित ०७ /०६ /२०१०

Monday, June 7, 2010

तुम और मेरी ग़ज़ल...

लिखूंगा तुम्हारे लिए
एक ग़ज़ल
वादा झूठा नहीं था
मुझको मिली
तन्हाई भी थी
और हसीं
मौसम भी था
ख्यालो का आया
एक सैलाब भी था
बन कर लफ्ज़
उतर रहा था
हर ख्याल
मेरे कागज़ पर
और उतर गई
तुम बनकर एक
खूबसूरत ग़ज़ल
मेरे उस कागज़ पर
लगा फिर मुझको यों
ये बे-मानी है
लफ्जों में तुम को बंधना
हो न कितने ही
खूबसूरत ये लफ्ज़
ब्यान तुमको
कर न पाते है
यही सोच
उड़ा मैंने दिया कागज़ वो
और फ़ैल गई
खुशबू तुम्हारी
चारो ओर ...
--- अमित ०७ /०६ /२०१०

Thursday, June 3, 2010

इंडियन मदर और मदर इंडिया ...

माँ, माँ ही होती है
मगर अपने यहाँ
दो तरह की होती है
एक तो है " इंडियन मदर"
और दूजी "मदर इंडिया"
पहली तो भर पूर पाई जाती है
दूसरी संख्यों में पाई जाती है
आप कहेंगे
जरा अंतर तो बताइए !
अंतर बड़ा वाजिब है
जिसको दे बस "लाल" दिखाई
"इंडियन मदर" वो कहलाई
और जिसे ने किया
हरियाली पर "लाल" कुर्बान
"मदर इंडिया" है उसका नाम !
--- अमित ०३/०६/२०१०