Monday, August 6, 2007

यह मजबूरी ...

सूरज ने अभी ठीक से आँखें भी ना खोली थी
और आधी दुनिया नींद के झूले में झूल रही थी
ऐसे में कोई उठा और निकल पडा रोजी की तालाश में
परवाह है ना उसे अधूरी नींद की और ना फिक्र आराम की
कम्बख्त, जेठ की गरमी भी बड़ी निरदयी है
यह देखती है ना कोई मजबूरी ,ना कोई लाचारी
यह देखती है ना कोई नंगा शरीर और ना भूखा पेट
यह जानती है बस झुल्साना शरीर का
लगा हुआ है मगर वो अपने काम में
भूलाकर इस तपती धुप का प्रहार
धुप की जलन कहॉ उसको जलाती है
यह तो पेट की आग है जो उस से ना सही जाती है
परिवार उसका भूखा है यह सोच कुदाल और तेज़ हो जाती है
सच है, यह पेट की भूख , ये मजबूरी
इस इन्सान से ना जाने क्या क्या करवाती है ...
--- अमित ०६/०८/०७

4 comments:

Pankaj Oudhia said...

'सच है, यह पेट की भूख , ये मजबूरी
इस इन्सान से ना जाने क्या क्या करवाती है'


सुन्दर रचना। ऐसे ही लिखते

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।

Reetesh Gupta said...

उस मन की भावनाओ को ह्रदय से दिखाया है..
अच्छी रचना...

Udan Tashtari said...

सच में हृदय में उतरती एक रचना, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति. बधाई.