Sunday, August 19, 2007

समझते हो हमे ...

क्यों करते हो नाहक कोशिश
समझ हम को जाने की
रखा था जिसने
नौ महिने अपने गर्भ में
पाला-पोसा , बड़ा किया जिसने
करती है वो आज भी कोशिश
समझ हम को जाने की
तुम से हमारा तो
बस इत्तिफाक है चन्द मुलाकातों का
और उस पर दावा है
तुमने हमे समझा है, तुमने हमे जाना है
क्यों छलते हो अपने आप को
करते जाओ योंही कोशिश
हमे समझना आसान नही
यह तो एक लम्बा सफ़र है
जिसका तुम्हे अनुमान नही
ये तो तुम्हारा आगाज़ ही है
अंजाम किसी को पता नही ...
--- अमित १९/०८/०७

2 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया भाव हैं रचना के.

Durga said...

very good poem.

bandhu, bahut khoob likha hai apne.

ek badiya subject ko, aapne bahut ache se, aur bahut majbooti se present kiya hai!

good work!!!

aise hi badiya likhte rahiyega!