Friday, August 3, 2007

ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे ...

ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे
सावन में बरसती
रिम झिम बरखा में
ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे
बहारों में खिले
फूलों के गुलिस्तां में
ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे
उगते सूरज की लालिमा में
ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे
चांद की चांदनी में
ढून्ढता हूँ मैं तुम्हे
मस्जिद से उठती अज़ानो में
और मंदिर से आती आरती में
जैसे ढून्ढता कस्तूरी मृग
कस्तूरी को हर जगह
मैं ढून्ढता तुम को
हर जगह और जानता नही
तुम बसी "मेरे दिल में "...
--- अमित ०३/०८/०७

6 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया है.बधाई.

मर्ग को मृग कर लें.

Sharma ,Amit said...

Thanks Sir. I have changed it.

Anonymous said...

सुस्वागत !!!
ब्लोग पर आने के लिए आप का तहे दिल से धन्यवाद ! कृप्या
मेरा मार्ग दर्शन करने का कष्ट करे ! धन्यवाद !

this is very good amit

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना है।बधाई।

Divine India said...

बहुत ही प्रेममय कविता है पढ़कर आपके खोज में मैं भी कुछ तलाशने लगा… :)

मेरा मात्र एक सुझाव है अगर मस्जिद और मंदिर बाली पंक्ति को अंतिम में रखें तो लय ज्यादा ख्ल कर आयेगा… क्योंकि यह कल्पना की अंतिम खोज है जब हम उन आश्रय में किसी को तलाशते हैं… बुरा नहीं मानेंगे…। धन्यवाद!!!

Sharma ,Amit said...

आप सभी की सराहना और मार्ग दर्शन के लिए धन्यवाद!
आप के बताये सुझाव को मैंने प्रयोग कर लिया है।
एक बार फिर धन्यवाद ॥