Wednesday, April 21, 2010

पंछी हुए श्याने ...

दौर मंदी का अब गया
और बाज़ार गर्म हो गया
अब तक जो बंद थे 'पर'
खुलने अब वो लगे ,
छोड़ कर पुरानी शाखे
आशियाना 'पंछी' नया लगे बनाने !
देख देख ये सब ,
मालिक कमज़ोर शाखों के लगे घबराने

ना हो वीरान, अपना आशियाना
पैतरे इसलिए नये नये लगे लगाने !
कल तक जो लगते थे खुद पर बोझ
आँगन के फूल नज़र अब वो आने लगे !
प्रलोभन रोज अब नये दिए जाते है ,
राई के भी अब तो , पहाड़ बना दिए जाते है !
हर छोटी खबर भी, मसाला साथ लिए होती है
और गई हर शाम 'पत्री' एक नई मिली होती है !
लाभ आज से आप को ये दिया जाता है,
वेतन में इजाफा किया इतना जाता है ,
आश्वासन लोगो को ये दिए अब जाते है !
देख देख इनकी ये सब चाल
'पंछी' भी अब हो गये श्याने है
उड़ना तो एक दिन फुर्र ही है
बस भागते इस 'भूत' के
लंगोट और हथियाने है ...

(आर्थिक मंदी का दौर ख़तम होने पर कंपनी और कर्मचारी के बीच की खीचा तानी पर )

--- अमित (२०/०४/२०१०)

परछाई ...

हर तरफ रौशनी फैली थी
खुशियों के चारो और मेले थे
दिन ईद , रात दिवाली थी
कभी मेरे आगे , कभी पीछे
कभी दाये , या बाये
हर लम्हा,
वो मेरे साथ थी ...
फिर तेज एक आंधी आई
बिखर सी गई खुशियाँ सारी
और छाई अंधियारी ...
अब ओझल वो हो गई
कल हर लम्हा जो साथ थी ,
याद मुझे आता हैं ,
कहा था उसने
वो मेरी " परछाई" थी ...
--- अमित ०५/०५/२०१०

Sunday, April 11, 2010

सपना ...

सपने,
एक छोटा सा शब्द
जो बदल दे , दुनिया ...
बिना एक सपने के
न होता बड़ा काम पूरा...
चहाइए सबको
देखें वो कोई न कोई सपना ...
मगर वो ,
जो टूट के बिखर जाए
टूटे एक सपने के साथ
नहीं अधिकार उनको
वो देखे कोई सपना ...
--- अमित ११/०४/२०१०

Tuesday, April 6, 2010

कैसे बनी हास्य कविता ...

एक साधारण सा सवाल
जो हर हास्य कवि से पूछा जाता
"आप की कविता में , हास्य कहाँ से आता "?
सवाल सीधा हैं और जबाब सरल ,
मगर समझ जरा देर से आता हैं
कवि, हास्य पैदा नहीं करता
आम लोगो के बीच,
रोज की जिन्दगी में येँ छुपा होता
कवि तो बस उठा इसे वहां से
शब्दों में अपने पिरोता !
बात इस पर हमने , जरा गौर किया
कान अपने खोले
और नजरो पर जरा जोर दिया !
तस्वीर हुइ कुछ साफ़ और
समझ में आया
हम इंसानों में ,
विचरते कुछ प्राणी भी हैं !
काम बस इतना करना हैं
ध्यान इन पर कड़ा रखना हैं !
प्ररेणा स्त्रोत की तरह , येँ काम आते हैं
करते हैं नित नई हरकतें
और कविता का विषय दे जाते हैं...
और मज़े की बात यहाँ देखिये
हम से लोग भी , हास्य लिख जाते हैं ...
--- अमित ०६/०४/२०१०

सूरज हूँ मैं...

चाँद नहीं हूँ मैं
जो रोशन हो,
उधार की रौशनी से !
सूरज हूँ मैं
जलाया हैं खुद को ,
किया तव रोशन जहाँ !
तो क्या हुआ ,
जो शीतलता नहीं मुझ में
ताप और उर्जा हैं
भर पूर मुझ में !
ताप सिखाता स्यमं
और उर्जा अंधरे से लड़ना !
शीतलता में रह कर
उन्नति नहीं आती ,
जब तक न तपे सोना
चमक उसमें भी नहीं आती !
येँ चमकता रूप मेरा
नहीं हैं कोई अहंकार
हैं येँ चमक संतुष्टि की
दी मैंने रौशनी जीने की !
क्या हुआ,
जो आज डूब जाऊँगा
वादा हैं मेरा ,
कल सुबह फिर आऊँगा
लिया हैं जो प्रण
उसको निभाऊंगा !
सिखा कर तुम को
खुद जलना,
उन्नति की राह
बनाना सिखाऊंगा !
--- अमित ५/०४/२०१०

Friday, April 2, 2010

स्नूपी हैं इनका नाम ...

जरा आप सोचिये
आप से पूछा जाए
सूरज होता क्यों गोल हैं ,
आग में होती क्यों हैं जलन,
और पानी क्यों करता गिला हैं ,
करेंगे क्या आप ,
सर खुज्लायेंगे और कर क्या पायेंगे !
अरे आप तो अभी से घबरा गये
येँ तो बस शुरुआत हैं
इनके साथ जो होगा
तो सैलाब ऐसे ही सवालों का आयगा !
सूरत बहुत भोली हैं , सीरत भी भोली हैं
ऊपर जगह मगर थोड़ी खाली हैं
इन सवालों की वहां होती खूब पैदावार हैं
साथ इनका लगता प्यारा हैं ,
मगर खुले जो इनका मुह
बेहतर हैं ढून्ढ ले कोई किनारा !
चर्चा आजकल इनके सवालों का आम हैं
दिया किसी ने "स्नूपी" इनको नाम हैं ...
--- अमित ०१/०४/२०१०