कई बरस हो चले, मेरी आवारगी को
हुई कैसे शुरुआत, याद कुछ अब नहीं
देखता हूँ पीछे मुड़कर मैं
धुंधला धुंधला सा नज़र सब आता है
भूली बिसरी कुछ यादों का
जुड़ा सा एक मेला, नज़र आता है
हाथों से छुटते कुछ हाथ नज़र आते है
थामता फिर कोई, दमन नज़र आता है
अधूरे कुछ वादे नज़र आते है
करना कुछ का पूरा, याद आता है
कुछ अद्ध जगी, राते नज़र आती है
कुछ उदास-उदास सवेरे नज़र आते है
की थी जो मस्तियाँ यारो के साथ
वो अभी भी गुद गुदाती है
चले जाना छोड़ कर, कुछ का राह में
नमी आखों में आज भी ले आता है
गुजरे ज़माने पर पड़ी है वक़्त की धुल
हाथ होता है जितना मैला,साफ़ उतना नज़र आता है
जाने आवारगी में कहाँ तक और चलते जाना है
सफ़र लगता मुझको यह बड़ा अनजाना है
हर कदम पर मुझको मंजिल मिलती है
और हर मंजिल पर, नई मंजिल का पता मिलता है ...
(मेरे इस पागलपन को छ: बरस होने वाले है, बस उसकी याद में ...)
--- अमित २७/०९/२०१०
6 comments:
बहुत अच्छे भाव और बड़ी खूबसूरती के साथ शब्दों में ढाला...
waqt chahe kitni bhi gart jamaye..magar yado ka suraj ugate hi roshani fail hi jati hai
वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
अमित जी
नमस्कार !
''बीते पलों के साथ कुछ पल बिताया जाए
कुछ छुई कुछ अन छुई बाते फिर दोहराइ जाए ''
अमित जी हमे भी कुछ पता चले आप कि यादों में कौन बसा है ?
धन्यवाद !
yarrrrrrrrrrr...................
बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
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