वाकया कभी कभी ऐसा घटता है
दिल दुखी हो, कुछ लिखने को करता है...
बाप ने औलाद से अपनी कुछ कहा
जबाब जो मिला, दिल टुकड़े उससे हुआ...
माँ-बाप ने आज़ादी दी, एक मुकाम दिया
आधुनिकता हमने ओढ़ी, और ढ़ाक सब दिया...
शर्म आँखों की जाने कहाँ गई
बे-शर्मी बन पर्दा, आँखों पे छा गई ...
आज आधुनिकता पड़ती हम पर भारी है
घर में "पड़ा" बुजुर्ग, मानो छूत की बीमारी है ...
यों तो रहते बस एक ही छत के नीचे
दरवाजा फिर भी तकती है आँखें
एक झकल को औलाद की , तरसती है आँखें ...
कान तो शयद अब पहचान न पायंगे
अदब भरे एक सलाम को, गर बच्चे करने आयेंगे...
जाने क्यों न हम समझ पाते है
जीवन तो बस एक पहिया है
चलते, बस चलते इसको जाना है
आज उनकी, तो कल अपनी बारी है
न जाने क्यों,
आधुनिकता पड़ती हम पर भारी है ...
(काफी परिवारों में बच्चो का माँ-बाप के प्रति रवैया देख कर )
--- अमित ०७/०९/२०१०
4 comments:
बहुत सटीक.
good composition very close to reality amit
प्यारे अमित जी
नमस्कार !
सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई और नए कलेवर के लिए भी ,
नमस्कार !
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bhaut sahi topic liya apne...
isko lekar sabko kuch karna chahiye
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