अनायास ही, उसकी और खीचा चला जाता हूँ मैं
खूबसूरत नहीं है वो, जानता हूँ मैं,
फिर भी कुछ तो है ऐसा, रोक खुद को नहीं पाता हूँ मैं
रुखसारो पर उसकी जुल्फों, कभी लहराते नहीं देखा
खुल कर अगर वो हवा में बिखर जाती,
यक़ीनन, फिज़ा में ख़ुशबू और महक जाती...
झांकती चश्मे के पीछे से वो दो आँखे
अक्सर खामोश ही रहती है,
जाने मुझे क्यों लगता, ये ख़ामोशी कुछ कहती है
काश मैं ख़ामोशी की जुबा पढ़ पाता
छुपे राज उनके कुछ, शायद मैं जान पाता
मुमकिन है, तस्वीर तब कुछ और होती
बे-चैनी को मेरी, कुछ रहत तो होती ...
और कुछ ख़ास नहीं उसमें, जो मैं बताऊंगा
यों तो यह भी कुछ ख़ास नही,
मगर होता यह जिस अदा से, वो लफ्जों में कहाँ लाऊँगा ...
कल फिर सामना मेरा उससे होगा,
कल फिर मैं खीचा चला जाऊँगा ...
--- अमित २२/०९/२०१०
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