Monday, June 27, 2011

पुणे, एक शहर अवसरों का...

पुणे,

एक शहर अवसरों का...

सुनहरे एक अवसर की तालाश में

लाखों की तरह मैं भी यहाँ आया...

सोचता था मैं कुछ

और मंजर कुछ और ही पाया...

बनावटी थे सब मुस्कुराते चेहरे

भीतर से सबको कुढ़ता पाया...

ऊंचाई में बढती इमारते देखी

और घरो को तंग होता पाया...

बैल गाडी भी जहाँ लड़खड़ा

उन सडको पर, अनगिनत वाहनों को दौड़ता पाया...

नदियों के इस शहर में

पानी को तरसते लोगो को पाया...

हरियाली थी जहाँ पहचान कभी

धुल को करते वहाँ राज, हर घर में पाया ...

विधार्थिओं का था जो कभी शहर

महंगाई को करते तांडव वहां पाया...

रोटी, कपडा और मकान की जुगत में

बद से बद्तर हाल यहाँ लोगो का पाया...

बात अनोखी फिर भी यहाँ लोगो की देखी

जेब में था छेद और अकड़ और अंदाज़ में सर बहुत ऊँचा पाया...

अज़ीब सी पशोपेश में हूँ

कुछ सवालों को ज़हन में बार-बार उठता पाया...

किस की है गलती, कहाँ रही कमीं

इंसान जो आज इस हालात में आया...

अरबों- खरबों का हमारे यहाँ होता घोटाला

अमीर होता और अमीर, गरीब पिसता जा रहा

हम करते है रोज़ बड़ी बड़ी बाते

घर जाते और मुहं ढक सो जाते...

जाने क्यों दोष सरकार और अधिकारीयों को देते है

६४ वर्षों में हम ही क्या कुछ कर पाए है?

होती है जब भी ज़रूरत कुछ कर गुजरने की

किन्हीं और कामों में व्यस्त हम नज़र आये है ...

भ्रष्ट हो जाओ सब यह नहीं चाहता

लाखों करोड़ों के हों मालिक यह नहीं मांगता ...

मानव जन्म हुआ है हमारा,

एक आच्छा मानव जीवन है अधिकार हमारा ...

काश जल्दी हम नींद से जाग जाए,

अपने लिए नहीं तो बच्चो के लिए अच्छा समाज बनाये ...

बदलती सोच ...

परिवर्तन प्रकर्ति का नियम

और बदलना मानव धर्म ...

होता जब कोई परिवर्तन

मानव करता नया सर्जन...

देख बदलती परिस्थियाँ

गिरगिट सा मानव, बदलता रंग...

और कहें जब नारी कि हो परिवर्तन

देखें फिर बदलता पल पल दृष्टिकोण...

बात यह जब करती कोई किशोरी

कहते सब, हाथों से निकलती है यह छोरी...

पढ़ी लिखी, थोडा और हुई वो सयानी

कहते सब, यथार्थ में आओ, जीवन नहीं परियों कि कहानी...

देखती वो घर और कामकाज भी है

उठता मगर बबाल उसकी स्वतंत्र सोच पर आज भी है...

ढल अब थोडा उसकी उम्र चली है

बुजुर्ग है, थोडा तो मान दो, प्रथा यह चल पड़ी है ...

जीवन काल जाने कितने बीत चुके

हम है मगर अभी वहीँ रुके हुए ...

लिंग देख प्रकर्ति कोई परिवर्तन नहीं लाती

साधारण सी ये बात, क्यों सभ्य समाज को समझ नहीं आती...

नारी भी है राष्ट्र की पूंजी,

और स्वागत करना परिवर्तन का है, सफलता की कुंजी ...

एक शाम ...

शाम के आठ बजे

सड़क का वो व्यस्त किनारा

उस चलती रसोई पर

मैं था अपनी भूख मिटा रहा...

यों तो भूख से हाल बुरा था

दिमाग फिर भी छाया सुरूर था...

काम पर अपने था वो लगा हुआ

देख नजारा पास का, प्रतिकिर्या दे रहा ...

बाजू में अपने फिर दो लड़के आये

बैठते ही इधर उधर कुछ फोन लगाये...

साथ ही थी दो कॉलेज की लड़कियां

टच-स्क्रीन पर थिरकती थी उनकी उँगलियाँ...

हम को लगता अजीब है यह फोन आया है

दोस्तों को छोड़, सब को फोन पर चिपका पाया है...

इतने में एक और देवी जी वहां आई,

सबसे पहली फ़रमाइश मेनू कार्ड की आई...

शैतानी अपने दिमाग में बात तुरंत आई,

मेनू ही देखना था तो ऐसी जगह क्यों आई?

फिर उन्होंने बड़े से पर्स में निगाह दौड़ाई,

बैंक कार्ड्स की लम्बी कतार उसमें नज़र आई...

आदतन फिर एक प्रतिकिर्या आई,

कितना शो- ऑफ करने यह लड़की यहाँ आई...

अपना दिमाग तो इसी सब में व्यस्त था

इतना भी न देखा पास में बच्चा एक भूख से पस्त था...

रसोई वाले ने तरस उस पर खाई,

खाने के लिए फिर उसकी एक प्लेट लगाई...

उन देवी जी का पार्सल अब तैयार था,

बिल चुकाने का उनको बस इंतज़ार था...

कानो में फिर अपने कुछ और बाते आई

पता चला, बच्चे की थाली की कीमत उन्होंने चुकाई...

बच्चे को दे एक मुस्कान वो अब जाती थी ,

याद कर पिछली दस मिनिटे , हमको झेप आती थी ...

टीम इंडिया...

बरसो से आखों में एक ही सपना था
हर बार लगता "वर्ल्ड कप" अपना था...
"टीम इंडिया" भी करती अपनी पूरी तैयारी
सामने मगर दिग्गजों के, साबित होती उनकी लाचारी...
चाहने वाले"टीम इंडिया" के करते थे जश्न की तैयारी
प्रदर्शन से टीम के धरी रह जाती थी सारी तैयारी...
बेटिंग पर अपनी गर्व करके हम खेलने जाते थे
और पड़ते ही दबाब , तिनके से बिखर जाते थे...
बोलिंग में अपनी, जरा न थी जान
फिर भी बचाया कई बार उसने हमारा मान...
समझ न आता था , कहाँ रहती कमी है
इतना बड़ा है देश और सोलह आदमियों की कमी है...
आलोचना पर आलोचना "टीम इंडिया" सही जाती थी
करती थी भरसक कोशिश, मगर कमी रह जाती थी ...
कमर इस बार फिर सबने कड़ी कसी थी
आई फिर इम्तिहान की घडी थी...
नए कोच इस बार हमने मंगवाए थे,
दबाब में न बिखरे हम, सायको ट्रेनर भी मंगवाए थे...
रणनिति यह नई, काम अपना कर गई,
नये कोच की सीख से टीम की ताकत बढ गई...
दबाब में भी अब, अच्छा प्रदर्शन आता था
सारे दबाबो को "टीम इंडिया" का मनोबल झेल जाता था...
हर मोर्चे पर हम डट कर लड़े,
हरा दिग्गजों को आगे बढ़े...
हिम्मत और मेहनत अपना रंग लाई
"२०११" में वर्ल्ड कप "टीम इंडिया" जीत लाई...
२८ साल बाद आई फिर आँखों में नमी है
ग़म नहीं, इस बार ख़ुशी आँखों में जमी है ...

हैट पार्टी ...

गये दिनों से शामे,

मोरिशस की कुछ उदास थी ,

"आधे" लिटल इंडिया को

बेचैनी इससे कुछ ख़ास थी...

जे.पी. ने फिर दिमाग लडाया

दिखाए इंडिया का रंग. ख्याल उसको आया ...

टोपी पहनाना सबको, यही है इंडिया का काम,

यही सोच "फंकी हैट" दिया थीम का नाम ...

कबीले के सरदार-रानी ने शुरुआत की

और आगे बढने को हरी झंडी दी ...

फुदकता हुआ खरगोश कहीं से वहां आया,

पास ही बैठा था वहां एक पागल,

खाना खरगोश को उसने खिलाया ...

बीच पर किसी ने क्रिकेट फिर खेला

सुस्त अम्पायर पर गुस्सा सब को आया ...

इतने में कहाँ से न जाने एक लुटेरा आया

क़ाओ- बॉय के संग उसने फिर जोर लड़ाया...

जे.पी. और जयाप्रदा जब मैदान में आये,

ठहाके सबने फिर खूब लगाये ...

गेटउप से उनके आँख न हट पाती थी,

टू- गुड टू- गुड बस यही आवाज़ हर ओर से आती थी ...