Monday, June 27, 2011

एक शाम ...

शाम के आठ बजे

सड़क का वो व्यस्त किनारा

उस चलती रसोई पर

मैं था अपनी भूख मिटा रहा...

यों तो भूख से हाल बुरा था

दिमाग फिर भी छाया सुरूर था...

काम पर अपने था वो लगा हुआ

देख नजारा पास का, प्रतिकिर्या दे रहा ...

बाजू में अपने फिर दो लड़के आये

बैठते ही इधर उधर कुछ फोन लगाये...

साथ ही थी दो कॉलेज की लड़कियां

टच-स्क्रीन पर थिरकती थी उनकी उँगलियाँ...

हम को लगता अजीब है यह फोन आया है

दोस्तों को छोड़, सब को फोन पर चिपका पाया है...

इतने में एक और देवी जी वहां आई,

सबसे पहली फ़रमाइश मेनू कार्ड की आई...

शैतानी अपने दिमाग में बात तुरंत आई,

मेनू ही देखना था तो ऐसी जगह क्यों आई?

फिर उन्होंने बड़े से पर्स में निगाह दौड़ाई,

बैंक कार्ड्स की लम्बी कतार उसमें नज़र आई...

आदतन फिर एक प्रतिकिर्या आई,

कितना शो- ऑफ करने यह लड़की यहाँ आई...

अपना दिमाग तो इसी सब में व्यस्त था

इतना भी न देखा पास में बच्चा एक भूख से पस्त था...

रसोई वाले ने तरस उस पर खाई,

खाने के लिए फिर उसकी एक प्लेट लगाई...

उन देवी जी का पार्सल अब तैयार था,

बिल चुकाने का उनको बस इंतज़ार था...

कानो में फिर अपने कुछ और बाते आई

पता चला, बच्चे की थाली की कीमत उन्होंने चुकाई...

बच्चे को दे एक मुस्कान वो अब जाती थी ,

याद कर पिछली दस मिनिटे , हमको झेप आती थी ...

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