Sunday, March 27, 2011

और हम करते है नाज़ ...

हम है भारतीय,
संस्कृति पर अपनी करते हैं नाज़!
पश्चिम वालो को चरित्र हीन है बोलते,
खुद बहू-बेटी और बच्चियों से करते है बलात्कार !
हम है भारतीय,
खुद पर बहुत करते हैं नाज़ !
और कहाँ कौन करता है माँ-बाप का मान,
भरे पड़े है अपने यहाँ सारे वृद्ध धाम !
हम है भारतीय,
खुद पर बहुत करते हैं नाज़ !
खून ख़राबा तो उनके धर्म में है लिखा,
गली-गली यहाँ क़त्ल भाई ने भाई का किया!
हम है भारतीय,
खुद पर बहुत करते हैं नाज़ !
कसमे खाते हमारी इमानदारी की,
जाने क्यों होते घोटाले यहाँ तमाम !
हम है भारतीय,
खुद पर बहुत करते हैं नाज़ !
राम-रहीम, किशन का था देश,
भेड़िये अब यहाँ घूमते, इंसान का है वेश!
(कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है की क्या सोच कर लिखा है... किसी भी दिन का अखबार उठा लीजिये , जबाब मिल जाएगा)
--- अमित २७ /०३ /२०११

Monday, March 14, 2011

जाने किस उम्मीद में ...

अरुणा तो जाने कब की चिर निंद्रा में सो गई
आँखें खुली हैं , एक दिन वो भी बंद हो जायेंगी...
इच्छा मर्त्यु से क्या उस पर कोई एहसान होगा
जिसने काटे इतने साल, चंद का साथ भी कट जायेगा ...
आत्मा है बस उसकी, परेशानी है बस उसकी
करार उसको न आसानी से आयगा ...
जब तक खुले घूमेंगे यहाँ से दरिन्दे
तब तक किसी अरुणा को चैन न आयेगा...
हर गये दिन हमारी गलियों, घरो में बलात्कार होता है
और हर कोई मूक दर्शक बना यह देख रहा होता है ...
दोष देते हैं हम पीड़ित को
अपराधी खुला घूम रहा होता है ...
क्या कानून है इन सब का दोषी
या इस समाज की है यह कारगुजारी ...
कहाँ ये दरिन्दे छुप जाते है
कहीं हमारे ही घर में शरण पाते है ...
क्यों नहीं माँ दूध का क़र्ज़ मांगती
क्यों नही बहन राखी की इज्ज़त मांगती...
क्यों नहीं पत्नी समझती दूसरी स्त्री का सम्मान
और क्यों नहीं बेटी ऐसे बाप का अपमान ...
क्यों तब तब मौन हो जाते है
जो बनते है राखी के रक्षक
खानदान के सम्मान के रक्षक
क्यों सब पुरुष, नपुंसक तब बन जाते है...
अपने सड़े हुए अंग को काटना ही पड़ता है
जो न करे उसे साफ़, जहर सब जगह फैलता है...
अरे बुद्धिजीवियों कुछ तो शर्म खाओ
हाथों में चूड़ियाँ न पहनो तुम
दिल में छुपे चोर का करो नाश
और समाज में फैलाओ नया प्रकाश...
ऐसी हालत तब किसी अरुणा की न होगी
सुरक्षित और सम्मानित हर अरुणा तब होगी ...
(इस उम्मीद में शायद किसी को कुछ समझ आ जाए)
--- अमित १४/०३ /२०११

Tuesday, March 8, 2011

कविता वीर रस की ...

गये दिनों कुछ कवि सम्मलेन सुने

वीर रस से थे सभी कवि तने...

बाते सबकी सुनकर मजा खूब रहा था,

कुछ ज़हन में बार बार मगर रहा था...

चाहे आप छोटा मुहं और बड़ी बाते बोले

तर्क अपना मैं ज़रूर सुनाऊंगा ...

ऐसी घटना बस हमारे यहाँ ही होती है ,

साल में बस दो ही दिन, देश भक्ति जगी होती है...

भर जोश में हर कोई दहाड़ता है,

इतिहास का शिक्षक, भूगोल बदलने की बात करता है...

आतंकी कोई किसी को तब बताता है ,

तो वन्दे मातरम् कोई "पाक" से गवाता है ...

शक नहीं की "पाक" को वन्दे मातरम् गाना पड़ सकता है,

डर है यह की अपनों को वन्दे मातरम् सिखाना पड़ सकता है ...

अपने यहाँ वन्दे मातरम् अब कौन गाता है

शकीरा और मडोना का गीत यहाँ धूम मचाता है...

बच्चा-बच्चा वहां कलमा जानता है

गायत्री मन्त्र, हनुमान चालीसा, जन गन मन और वन्दे मातरम् यहाँ कितनो को आता है ...

राम और लक्ष्मण से चरित्र अब यहाँ जन्म पाते है,

भगत सिंह और "आज़ाद" को अपने अब आतंकी बताते है...

क्या हम सिखाते है अपने बच्चो को,

क्या उनको को अब आता है?

एक बार आप यह गिनती करा कर देखिये,

झुकती है कैसे शर्म से गर्दन , जरा फिर देखिये...

बस गाने से शोर्य गीत, कहानी बदल जाती है,

खोखली हो नीव अगर, इमारत एक दिन तो ढेह जाती है ...

--- अमित ०७/०३/२०११

Saturday, March 5, 2011

जाने कौन समझ जाय ...

जिस का काम उसी को सजता है
करे और कोई तो डंका बजता है...
शिक्षक हुआ करते थे कभी
आज साहूकार विद्यालय जाता है
बिगड़ रही है नई पीढ़ी,
यह दोष फिर युवाओं को दिया जाता है...
जनसेवक शासन करते थे कभी
उठाईगिरो से देश आज लुटा जाता है
दोष देते है संसद वालो को सब
गरेबाँ में अपने झाँका किसी से न जाता है ...
कुछ सिरफिरे हुआ करते थे
कुछ सिरफिरे हुआ करते हैं,
सरहद की रखवाली करते है
जाने क्यों खून अपना बहाते है,
दो दिन हम याद उनको करते है
तीन सों तरेसठ दिन भूल जाते है ...
गैरतमंद हुआ करते थे गये जमानो में
दफना दी गई गैरत आज कब्रिस्तानो में
करे जो कोई जतन कुछ जगाने का, तो जबाब आता है
अकेला चना कहाँ भाड़ फोड़ता पाता है...
मैं तो छोटा सा कवि हूँ
चंद शब्दों में अपनी बात कह जाऊँगा,
चंद होंगे जो सुनकर जाग जायेंगे
बहुत होंगे जो "ताली" बजा कर चले जायेंगे ...
समझ सको हो समझ जाओ
ताली बजाने से काम न चल पायेगा
पहले सफाई अपनी ज़रूरी है
बाकी खुद-ब-खुद साफ़ हो जाएगा ...
---अमित (०५/०३/२०११)