Monday, March 14, 2011

जाने किस उम्मीद में ...

अरुणा तो जाने कब की चिर निंद्रा में सो गई
आँखें खुली हैं , एक दिन वो भी बंद हो जायेंगी...
इच्छा मर्त्यु से क्या उस पर कोई एहसान होगा
जिसने काटे इतने साल, चंद का साथ भी कट जायेगा ...
आत्मा है बस उसकी, परेशानी है बस उसकी
करार उसको न आसानी से आयगा ...
जब तक खुले घूमेंगे यहाँ से दरिन्दे
तब तक किसी अरुणा को चैन न आयेगा...
हर गये दिन हमारी गलियों, घरो में बलात्कार होता है
और हर कोई मूक दर्शक बना यह देख रहा होता है ...
दोष देते हैं हम पीड़ित को
अपराधी खुला घूम रहा होता है ...
क्या कानून है इन सब का दोषी
या इस समाज की है यह कारगुजारी ...
कहाँ ये दरिन्दे छुप जाते है
कहीं हमारे ही घर में शरण पाते है ...
क्यों नहीं माँ दूध का क़र्ज़ मांगती
क्यों नही बहन राखी की इज्ज़त मांगती...
क्यों नहीं पत्नी समझती दूसरी स्त्री का सम्मान
और क्यों नहीं बेटी ऐसे बाप का अपमान ...
क्यों तब तब मौन हो जाते है
जो बनते है राखी के रक्षक
खानदान के सम्मान के रक्षक
क्यों सब पुरुष, नपुंसक तब बन जाते है...
अपने सड़े हुए अंग को काटना ही पड़ता है
जो न करे उसे साफ़, जहर सब जगह फैलता है...
अरे बुद्धिजीवियों कुछ तो शर्म खाओ
हाथों में चूड़ियाँ न पहनो तुम
दिल में छुपे चोर का करो नाश
और समाज में फैलाओ नया प्रकाश...
ऐसी हालत तब किसी अरुणा की न होगी
सुरक्षित और सम्मानित हर अरुणा तब होगी ...
(इस उम्मीद में शायद किसी को कुछ समझ आ जाए)
--- अमित १४/०३ /२०११

1 comment:

रचना said...

keep writing may be someone reads and understands the gravity of rape