पुणे,
एक शहर अवसरों का...
सुनहरे एक अवसर की तालाश में
लाखों की तरह मैं भी यहाँ आया...
सोचता था मैं कुछ
और मंजर कुछ और ही पाया...
बनावटी थे सब मुस्कुराते चेहरे
भीतर से सबको कुढ़ता पाया...
ऊंचाई में बढती इमारते देखी
और घरो को तंग होता पाया...
बैल गाडी भी जहाँ लड़खड़ा
उन सडको पर, अनगिनत वाहनों को दौड़ता पाया...
नदियों के इस शहर में
पानी को तरसते लोगो को पाया...
हरियाली थी जहाँ पहचान कभी
धुल को करते वहाँ राज, हर घर में पाया ...
विधार्थिओं का था जो कभी शहर
महंगाई को करते तांडव वहां पाया...
रोटी, कपडा और मकान की जुगत में
बद से बद्तर हाल यहाँ लोगो का पाया...
बात अनोखी फिर भी यहाँ लोगो की देखी
जेब में था छेद और अकड़ और अंदाज़ में सर बहुत ऊँचा पाया...
अज़ीब सी पशोपेश में हूँ
कुछ सवालों को ज़हन में बार-बार उठता पाया...
किस की है गलती, कहाँ रही कमीं
इंसान जो आज इस हालात में आया...
अरबों- खरबों का हमारे यहाँ होता घोटाला
अमीर होता और अमीर, गरीब पिसता जा रहा
हम करते है रोज़ बड़ी बड़ी बाते
घर जाते और मुहं ढक सो जाते...
जाने क्यों दोष सरकार और अधिकारीयों को देते है
६४ वर्षों में हम ही क्या कुछ कर पाए है?
होती है जब भी ज़रूरत कुछ कर गुजरने की
किन्हीं और कामों में व्यस्त हम नज़र आये है ...
भ्रष्ट हो जाओ सब यह नहीं चाहता
लाखों करोड़ों के हों मालिक यह नहीं मांगता ...
मानव जन्म हुआ है हमारा,
एक आच्छा मानव जीवन है अधिकार हमारा ...
काश जल्दी हम नींद से जाग जाए,
अपने लिए नहीं तो बच्चो के लिए अच्छा समाज बनाये ...