Tuesday, May 4, 2010

गुरु द्रोण ...


चर्चा आजकल येँ आम हैं
देश हमारा ,
होता हर जगह क्यों नाकाम हैं ...
शिक्षाएं तो हमारी अच्छी हैं
देती परिणाम अब ये दुसरा हैं ...
कहते ,
शिष्यों ने अब गुरु सम्मान छोड़ा
यह देख , ज्ञान ने उनसे मुंह मोड़ा ...
शिष्यों ने गुरुओं का तर्क स्वीकार
और पक्ष अपना संभाला ...
माना ,
स्तर शिष्यों का धुल धूसरित हुआ
गुरुओं ने कहाँ गरिमा को संभाला ...
एकलव्य तो अब यहाँ मिलते नहीं
पर गुरु द्रोणो की कमी नहीं ...
शिक्षार्थी को ये, स्वीकारते नहीं
कर स्व-अभ्यास कोई आगे बढ़े
तो प्रोहत्साहन को पूछे कौन,
निरुत्साहित करने को तैयार खड़े ...
एकलव्य को अर्जुन समझते द्रोण
तो ये प्रथा ही न जन्म ले पाती,
गुरु, गुरु ही रहते ,
शिष्यों को भी सही दिशा मिलती जाती ...

--- अमित 04/05/10

4 comments:

Admin said...

कविता में कुछ अधूरापन है लेकिन उम्मीद प्रबल है.

शुभकामनायें

निर्मला कपिला said...

स्तर शिष्यों का धुल धूसरित हुआ
गुरुओं ने कहाँ गरिमा को संभाला ...

ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी और सही है दोनो ही आज कल नही मिलतेऔर दोनो ने ही अपनी गरिमा खो दी है।
एकलव्य तो यहाँ मिलते नहीं
पर गुरु द्रोणो की कमी नहीं ..
पहली दो पंक्तियों मे और अगली दो पंक्तियों मे आपस मे विरोधभास सा लग रहा है। शुभकामनायें

Sharma ,Amit said...

@ Sunil & Nirmal ji : thanks for the comments... it guides for next effort... Please check this now, i have completed the poem...

Star of Fortune said...

translation plz!!!