Monday, March 31, 2014

क्या सूरत बदल पायेगी ...

गर लगाने भर से एक ठप्पा
और दबाने भर से एक बटन
जो सूरत-ऎ -हाल बदल जाते
हम कहीं के कहीं नज़र आते !
जो बने है आज  बुलद दरख्त
जमींदोज़ शायद वो नज़र आते !
हमारे ईमान की कमज़ोरी
काम उनके कुछ यों आ गई
चंद लोमड़ों की फ़ौज
शेरों की  बस्ती को खा गई !
लालच की बदलियाँ
कुछ इस कदर हैं छाईं
शैतान खड़े  थे सामने
और सूफी दिये दिखाई !
खुदगर्ज़ी की चली यों  सर्द हवा
दौड़ता लहू अपनी रगो में जमा
जो तुम कटोगे, एक आंसू न बहेगा
और जान दोगे  बस मुफत में गवां  !
बोई थी जो फ़सल किसीने फूट की
हमने शिद्दत से पकाई है
और हमें सींचे है बबूल
चुभन हमारी नस्लों ने पाई है !
जब तक ना इस खुदगर्ज़ी को दफ़नाओगे
कहीं हो, चैन से न कभी न जी पाओगे
क़त्ल से यों मिलती है सज़ा
कर यह क़त्ल आज़ादी तुम पाओगे !
वक़्त है अभी भी संभल जाओ
सोया है जो, ज़मीर वो जगाओ
याद रखो यह बात काम आयेगी
हमारा बोया हमारी औलाद खायेगी !

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

अनोखी शब्दावली कितनी प्यारी है .. मनमोहक