भाषाओं के देश की हालत तो देखिए
खुद की ना कोई भाषा, कैसी विडंबना देखिए ...
अनेकता में एकता, हँसी अब इस पर आती है
उत्तर की बात , दक्षिण को समझ कुछ ना आती है ...
शर्म कहु या मर्म , कुछ समझ ना मेरी आता है
देश में बात करने को विदेशी भाषा का सहारा लिया जाता है...
जननी थी जो सब भाषाओं की, दुर्दशा उसकी ना देखी जाती है
गिनती उसको पहचाने वालो की, हाथों में सिमट जाती है ...
माना विदेशी भाषा ज्ञान हमे प्रगति की और ले जाता है
गर भुला दे अपनी भाषा तो मूल्य अपना गिर जाता है...
अंपनी भाषा, संस्कार और संस्कृति को मज़बूत बनाती है
मज़बूत संस्कारो से प्रगती भी मज़बूत बन टिक पाती है ...
बिन अपनी भाषा , संस्कार शिथिल पड़ जाते हैं
सभी जानते, हिलते पेड़ तूफ़ानो में ना टिक पाते हैं...
नीव तो अपनी हिल चुकी हैं
समय रहते क्यों न हम समझ से काम ले
लडखडा कर गिर जाए किसी दिन हम
क्यों इससे पहले अपनी भाषा का दामन थाम ले ...
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