अक्सर अब बंद ही रहता है, कमरा मेरा
अंधरों और ख़ामोशी से भरा रहता है, कमरा मेरा
उठती खांसी से कभी टूट जाती ख़ामोशी
लिख कर जलाई ग़ज़ल से, छटता कभी अँधेरा
सीलन की सी एक उसमें ब़ू रहती है
अक्सर आसुओं की नदी वहां बहती है
बे-जान हुआ फर्श, खो चुका चमक अपनी
मेरे टूटे अरमानों की, धुल पड़ी वहां रहती
किसी शोख़ के ग़म का मैं मारा नहीं
हालातों ने भी कुछ ऐसा था बिगाड़ा नहीं
बस, इस दुनिया के दस्तूर ही कुछ रास न आये
यों तो थे यहाँ सब अपने, पर बरताव पराये
खून के रिश्तों को दौलत खा गई
आँखों की शर्म को, कबकी मौत आ गई
चंद सिक्को में जाने क्या-क्या बिक जाता है
और भूखे को यहाँ निवाला न हाथ आता है
अपनी यहाँ ये लाचारी है
तोड़ दी गई छीन कर, कलम हमारी
कि जो कोशिश करे बुलंद आवाज
काट दी गई यहाँ, जुबान हमारी
घड़िया अब बस गिनते है
कौन जाने कब बारी हमारी है ...
--- अमित ( ०१/१२/२०१० )
4 comments:
गहरे भाव लिए हुए एक खुबसुरत रचना। आभार।
bahut khoobsurt
mahnat safal hui
yu hi likhate raho tumhe padhana acha lagata hai.
bahut sundar rachanaa hai
good poem
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