Thursday, August 12, 2010

एक प्रयोग ...

अशोक चक्रधर जी की एक कविता हमने सुनी
कुछ ज्यादा ही प्रभावित, उससे हम हो गये ,
जुगाड़ लगा उनसे मिले,
समझा-बुझा, मन की बात बताने वाला यंत्र
उधार कुछ दिनों के लिए हम उनसे लिए.
सोचा चलो हम भी उस यंत्र को आजमाएंगे
क्या विचारे है हमारे बारे में, यह पता लगायेंगे
पहला शिकार श्री-मति जो को ही बनाया
सुनकर उनके विचार, सिर हमारा चकराया,
यंत्र के आवाज कुछ ऐसी आती थी
इंजिनियर जान कर इनसे ब्याही थी
यहाँ ये कवि, गले मेरे पड़ गया
कविताएं तो राम ही जाने कैसी करता है,
मगर कोई पूछे इनसे, कविताओं से क्या पेट भरता है?
पहले ही मोर्चे पर मुहं की हमने खाई थी
सहमे ज़रूर थे, पर हिम्मत न गवाई थी.
दूसरा शिकार हमारे बिहारी बाबू थे
अपनी कविताओं के दम पर, किये हम उनपर काबू थे
उम्मीद अबके पूरी थी, रिपोर्ट अच्छी ही आयेगी
सोच कर यही, ख़ुशी-ख़ुशी बटन यंत्र की दबाई
आवाज अपने कानो में फिर कुछ यूँ आई
आ गये है फिर, चार कविताये सुनायेंगे
तंग आ चुके है हम, ये ज़बरदस्ती वाह-वाह करवायेंगे.
लड़ाई पड़ रही अब भारी थी, दुसरे मोर्चे पर भी हार हमारी थी.
सोचा अबके , नये किसी मुर्गे को आजमाएंगे,
नया-नया मुल्ला है, अल्लाह ही अल्लाह पुकारेगा
सुन कर कुछ तारीफ़, खुश थोडा हम हो जायेंगे.
इसी उधेड़ बुन में, शर्मा जी का रुख हमने किया
जैसी उम्मीद थी, हाथों हाथ उन्होंने हमको लिया
लगता अभी सब कुछ अच्छा-अच्छा था,
जाने यंत्र के बटन पर ऊँगली कब अपनी दब गई,
दबी-दबी सी एक आवाज़ कानो में फिर आई
मरने की यहाँ फुर्सत नहीं, ये करते कविताई
वो भी करे तो ठीक है, करते बस हमारी खिचाई...
ख़ुशी यहाँ भी अपनी, गले हमे मिलने से रह गई
शक्ल अपनी घुटनों तक लटक अब थी
कोसा उस घडी को, जब इस प्रयोग की याद आई थी ...

(अपने जन्म दिन पर अपना ही शिकार किया ...अशोक चक्रधर जी की एक कविता से प्रभावित हैं )

--- अमित १२/०८/२०१०