Tuesday, August 10, 2010

"माता" उधर ही आती है ...


पपीता कहूँ या फीता
सीता कहूँ या गीता
बसंती बोलूं या धन्नो
असल नाम तो राम है जानता
खैर नाम को तो छोडिये
नाम से हमे क्या काम
करते है चर्चा इसकी,
खाना सब लोगो का सर
यही है इनका, इकलौता काम...
अरे हाँ,
अदाकारी भी ज़बर इनको आती है
आप दे किरदार कोई, समा उसमें जाती है
काम यह पर अपने जोखिम पर कीजियेगा
न आये किरदार से बाहर, दोष हमे न दीजियेगा
हमने भी दो-तीन बार आजमाई है
और हमेशा ही मुहं की ही फिर खाई है
किरदार में यें कुछ ऐसी समाई
हफ़्तों फिर उससे बाहर न आईं
लाख समझाया हमने, लाख मनाया
दिए लालच और धमकी भी हमने
जुगत काम मगर एक न आई
लगता मानो, भैंस के आगे बीन बजाई
अपना दिल तो नाज़ुक है. तरस फिर भी खा गया
तरस मगर इनको किसी पर न आई
एक ही गलती, इन्होने बार-बार दोहराई
यह इनकी सजा है, जो कविता बनकर यहाँ आई ...
कविता हमने लिख तो दी, जी मगर घबराता है
दूर से कानो में कुछ आवाज सी आती है
"अमित जी" संभलिये "माता" उधर ही आती है ...

(लिटल इंडिया के एक सदस्य पर )

--- अमित १०/०८/१०

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

हमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....

संजय भास्‍कर said...

सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....