कुर्सी,
इस शब्द में ही अजीब सा खिंचाव है
देखते ही अपनी और खिंच लेती है
और जाते ही आगोश में इसके
जैसे मिट ही जाता सारा दर्द...
तभी तो देखा है
जितना बुड्ढा होता कोई
उतनी है बडी कुर्सी लेता ...
पता नही ,
कुछ को ये कुर्सी रास क्यों नही आती
या कुर्सी को "कोई" पसंद नही आता
और लेती कुर्सी किसी को तडपाने का मज़ा ...
देखते ही इनको कुर्सी को सूझता मजाक
ऐसा ही कुछ होता इनके साथ
जब होते ये जनाब कुर्सी के पास
उग जाते जैसे कांटे कुर्सी में
जिन्हें देख भागते फिरते यें ...
दूर से यें देंखे तो फूलों सी लगती कुर्सी
और बैठते ही इनके
अंगारों सी दहकती कुर्सी ...
खींचती कभी चुम्बक की तरह
और बैठते ही इनके
बिजली का झटका दिखाती कुर्सी ...
गज़ब है ये कुर्सी
जाने क्यों इनको इतना तडपाती
है ये बैरन कुर्सी ...
--- अमित ३० /०३ /२००९