Monday, March 30, 2009

कुर्सी और यें ...



कुर्सी,


इस शब्द में ही अजीब सा खिंचाव है


देखते ही अपनी और खिंच लेती है


और जाते ही आगोश में इसके


जैसे मिट ही जाता सारा दर्द...


तभी तो देखा है


जितना बुड्ढा होता कोई


उतनी है बडी कुर्सी लेता ...


पता नही ,


कुछ को ये कुर्सी रास क्यों नही आती


या कुर्सी को "कोई" पसंद नही आता


और लेती कुर्सी किसी को तडपाने का मज़ा ...


देखते ही इनको कुर्सी को सूझता मजाक


ऐसा ही कुछ होता इनके साथ


जब होते ये जनाब कुर्सी के पास


उग जाते जैसे कांटे कुर्सी में


जिन्हें देख भागते फिरते यें ...


दूर से यें देंखे तो फूलों सी लगती कुर्सी


और बैठते ही इनके


अंगारों सी दहकती कुर्सी ...


खींचती कभी चुम्बक की तरह


और बैठते ही इनके


बिजली का झटका दिखाती कुर्सी ...


गज़ब है ये कुर्सी


जाने क्यों इनको इतना तडपाती


है ये बैरन कुर्सी ...


--- अमित ३० /०३ /२००९

Sunday, March 22, 2009

घुमने गये पार्क ...


कई दिन गये ,

आज फ़िर गये हम

घुमने वही "पार्क"...

छोटे छोटे पेड़ों

फूलों की कियारियों

और सुंदर फ़वारे से सजा ,

बडा सुन्दर लगता वो "पार्क"...

आज तो दर्शय था बहुत प्यारा

छोटे छोटे , नन्हे - मुन्नों से भरा था वो "पार्क"...

इधर देखा वो छोटा बच्चा

छोटे छोटे कदमो से भागा जाता था

भाग रही थी माँ उसके पीछे

हाथ मगर कहाँ वो उसके आता था ...

एक कूदता पानी में फ़वारे के

दूसरा देखा उसे घबराता

और जा अपनी माँ पास छुप जाता

मन फ़िर करता पानी में कूदे

क्या करे वो डर फ़िर जाता ...

वो देखा गेंद से बालक एक खेलता

मारता कभी पाँव से गेंद को

और कभी ख़ुद ही गिर जाता

हो खडा और ज़ोर लगा पाँव मारता ...

देख देख बच्चों के करतब
बडा मजा आता था

मन तो अपने बचपन में भागा जाता था

काश रोज़ ऐसी शाम आए

जो बचपन में मेरे मुझे ले जाए ...



--- अमित २२-०३-२००९




Monday, March 9, 2009

ठहराव...

ठहर सी गई है जिन्दगी;

अब कुछ ऐसा लगता है ...

आ कर एक दोराहे पर

कुछ सोच में पड़ गई है जिन्दगी

अब कुछ ऐसा लगता है ...

करने को तो है बहुत कुछ अभी

जाने जान हाथों से निकल गई हो

अब कुछ ऐसा लगता है ...

शयद सुबह करीब ही है

घना हुआ अँधेरा सा लगता है

मैं तो चाहता हूँ नींद से उठना

जाने क्यों शरीर थका सा लगता है ...

कुछ तो हो ऐसा अब

जो कर दे मुझे सागर सा चंचल

ये ठहराव अजीब सा लगता है अब ...

पता नही क्यों ...

पता नही क्या था वो
समय का बहाव
या;
मेरे दिल में
कुछ ज़ज्बात दबे थे
जो बह निकले शब्द बन कर
और नाम हुआ कविता
पता नही ...
आज भी , वही मैं हूँ
वही मेरा दिल
वही मेरी ज़ज्बात
गर नही है कोई तो
बस शब्द ,
पता नही क्यों ...

Friday, March 6, 2009

शांत रहो ...

हर गये दिन जुमला एक

कानो में हमारे पड़ता हैं

छोड़ा हमको नही जायेगा

हर हिसाब हम से

एक दिन लिया ज़रूर जाएगा ,

कह कर कोई

गुस्से से अकड़ता हैं ...

आदत से हम भी मजबूर हैं

गुस्से पर मुस्काते हैं

जले हुए दिल को ,थोड़ा और जलाते हैं ...

येँ जनाब भी , जरा हट के हैं

सोचते हो हैं , जाने क्या कर देंगे

पकड़ कर कान चाँद का

जमीन पर ला रख देंगे

और पकड़ कर दुम शेर की

बना दरबान ,

खडा दरवाजे पर कर दंगे ...

धाक जम मगर कहीं न पाती हैं

बनती - बनती बाजी इनकी , बिगड़ ही जाती हैं

पासे जाने पलट कैसे जाते हैं

होकर इनका , इन्हे ही चिडाते हैं ...

खिसाय्नी बिल्ली सी इनकी हालत रहती हैं

और दुम सदा टांगो में छिपी रहती हैं ...

पडे जब भी उस पर पैर हमारा

"शांत रहो - शांत रहो "

गूंजता हैं कानो में येँ नारा ...

--- अमित

आला रे आला ...

आला रे आला

SPICE-08 आला

सब टीमो ने अपना

परचम संभाला

आला रे आला
SPICE-08 आला

"सुखोई" जहाँ

ताकत में मदमस्त है ,

"पृथ्वी " भी वहां

सम्मान बनाये रखने की जुगत में व्यस्त है .

"अग्नि " और "भार्मोस"

दोनों तरफ़ से न कुछ आहट है

कमजोर न कोई इनको समझो

रणनीति के गुरुओं से भरपूर

दोनों टीमो की पुरी तैयारी है

देखना बस यह है

तरकश में तीर किस के कितने है

अब मैंदान में आने की बारी है ...

(SPICE : A sport event in Infosys for CCD Project...)

--- अमित