Tuesday, October 23, 2007

जाने क्या सोच कर...

सारा कोताहल, मायूसी में बदल गया
जाने क्यों,
माँ के चेहरे पर भी उदासी आ गई
ये डर था या सच से घबरा गई
इस बार तो लड़का होना था
ये लड़की कैसे आ गई
अब क्या होगा,
फिर वही जिद्दोज़हद , वही परेशानी
सबको अपनी अपनी पड़ी थी
दादी तो जाने किन किन को कोस रही थी
और माँ, कुछ और सोच रही थी
डर था फिर नौ महीने ऐसे ही बिताएगी
बाप भी थोडा परेशान था
इस जमाने में लड़की को पालना कहाँ आसान था
लड़की पैदा होने का गम उसे ना सताता था
उसकी शादी कैसे होगी, यह डर अभी से आता था
बच्ची, इस सब से बहुत दूर माँ के करीब सोती थी
बाहर दादा बैठा था उसका,
बच्ची के पैदा होने की ख़ुशी बहुत उसे थी
जो उसके चेहरे से मालुम होती थी
दादा, बडा समझदार था
बदलते इस जमाने का पूरा उसे ख्याल था
लड़की अब कहाँ लड़को से मात खाती है
जहाँ देखो, लड़को से बाजी मार ले जाती है
दुनिया भी जाने कैसी सोच अपनाती है
लड़की से ही शुरू हुई है और उसी से कतराती है ...
(शायद आप में से कुछ को अजीब लगे, मगर जो मेरा अनुभव था वो कुछ ऐसा ही था।)
--- अमित २३/१०/०७

1 comment:

Anita kumar said...

दुनिया आजकल दो भागों में ही बंटी हुई है एक दादा वाली और दूसरे दादी वाली, किसी ने सच कहा है कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है।