Wednesday, October 17, 2007

सिफर ...

तुम्हारे लिए,मैं क्या हूँ
बस, एक सिफर
इस से ज्यादा,
कभी समझा है तुम ने
हर मुकाम, हर मंज़िल
एक सिफर ही है माना
सही है, तुम ने हमे जो माना
सिफर तो कहा तुमने
इसकी ताकत को मगर ना जाना
ये सिफर ही है ,
जीवन जिस से शुरू हुआ
ये सिफर ही है,
अंक ज्ञान जिस से बना
सिफर से ही ,
विज्ञान ने गति पाई
और सिफर ही था
जिस से दुनिया सितारों तक पहुंच पाई
अभी अंधरे में हो
सिफर को कहाँ जान पाओगे
आंखें जब खुलेगी
खुद दौड़ हमारे पास आओगे ...
--- अमित १७/१०/०७


1 comment:

Anonymous said...

wah!

ek aur creative kavita!

yeh sifar ka kaise khayal aaya??

badiya kavita ban gayi hai!

shukriya!

durga