पल पर पल गुजरते गये
और मिनट, घंटो में बदलते गये
दिन ना जाने कब शुरू हुआ
और कब रात ख़त्म हुई
और मिनट, घंटो में बदलते गये
दिन ना जाने कब शुरू हुआ
और कब रात ख़त्म हुई
समय यों ही बीतता गया
और महीने साल हो गये
अब तो याद भी
नही कैसे हुआ था सफ़र एक
इक हल्का सा धुंधलका; बस बाक़ी है
कब जुबां खामोश होती चली गई
और कब दिल बोलने लगा
महफ़िलें , तनहाइयों में तब्दील हो गयीं
अकेलापन, तो खुद से घबरा गया
नही कैसे हुआ था सफ़र एक
इक हल्का सा धुंधलका; बस बाक़ी है
कब जुबां खामोश होती चली गई
और कब दिल बोलने लगा
महफ़िलें , तनहाइयों में तब्दील हो गयीं
अकेलापन, तो खुद से घबरा गया
और चुपके से शायरी के पहलू में आ गया
जाने कैसे यह सफ़र हमे रास आ गया
हम तीनो साथ चले थे कभी
आज देखा तो ज़माना साथ आ गया ...
--- अमित ०१/१०/०७
4 comments:
प्रिय अमित को आशीष वचनों के साथ
तुम कभी भीड़ ना बनना
हमेशा नेतृत्व करना
कारवां खुद बन जायेगा
बस चलना ना रोकना
bahut badiya!!
durga
bahut hi emotional poem hai.
meaning jaan kar to padne ka mazza hi kuch aur hai..har shabd ek kahani bol raha hai - bahut khoobsoorat likha hai.
ab jab aapko safar ras aa hi gaya hai - to jamana kahan jayega...
magar tanahaiyan, aur juban ki khamoshi, dil ka bolna aur yeh shayri... bahut khoobsoorat likha hai...
durga
उम्दा भाव, अच्छे लगे.
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