Thursday, May 27, 2010

अक्स मेरा...

आज फिर तोड़ दिया
एक आइना मैंने
दिखा रहा था सच मेरा
करता मैं क्या
बर्दाशत ही नहीं होता
आईने में
अक्स मेरा !!!
--- अमित २७/०५/२०१०

Saturday, May 15, 2010

कुछ समान अभी बाकी है ...

मेरे कमरे में
कुछ समान अभी बाकी है
इबारते लिखी है कुछ कागजों पे
कोरे कुछ कागज़ अभी बाकी हैं
दवात में जो थी कभी श्याही
सूख कब की वो चली
रगों में दौड़ता लहू अभी बाकी है
मेरे कमरे में
कुछ समान अभी बाकी है
मेरी मेज़ पर रखा है
अभी वो आधा टूटा चश्मा
साथ पड़ी किताबों से
धुल हटानी अभी बाकी है
मेरे कमरे में
कुछ समान अभी बाकी है
टंगा है जो उस खूंटी पर
मेरे थैले में
यादों के चाँद टुकड़े अभी बाकी है
लेकर कहाँ मुझे जाते हो
मुर्दा तो सिर्फ जिस्म है
रूह में जान अभी बाकी है
मेरे कमरे में
कुछ समान अभी बाकी है
--- अमित १४/०५/२०१०

Thursday, May 13, 2010

दो प्रशन ...

कल फिर फैका
तेज़ाब किसी ने
एक लड़की पर
सुनकर हुआ दुःख !
लोगो की प्रतिकिर्या आई
निकम्मी है सरकार
निकम्मा है प्रशाशन
और लचीले है क़ानून
करेगा क्या इन "शैतानो" का !
सुनकर आया क्रोध
क्या है आधार
जो दे दोष दुसरो को !
प्रशन करता हूं मैं दो
प्रशन है पहला
नारी सबला है या अबला ?
अगर अबला है तो
बात बराबरी की क्यों ?
संरक्षण उसका जरुरी है
जिम्मेदारी पुरुष को दो !
गर सबला है नारी तो
जबाब करार नहीं देती क्यों
जब उठे आँखे और हाथ उस पर दो !
देती जब वो जीवन
हर क्यों न लेती "शैतान" का जीवन वो?
प्रशन दूसरा है
आते कहाँ से है "शैतान" वो
अगर मैं गलत नहीं
घरों में हमारे ही
पलते हैं "शैतान" वो !
लाल अपना प्यारा है सबको
लाडली अपनी प्यारी है सबको
लाडली किसी दुसरे की
काँटा क्यों बन जाती आँखों में वो?
क्यों नहीं देते हम ध्यान
क्यों नहीं कसते हम लगाम
निकलते है घर से जब लाडले के पाँव!
क्यों नहीं होता दमन "शैतानो" का घर में
जब दिखाई देते है पाँव पालने में !
--- अमित १३/०५/१०

Wednesday, May 12, 2010

नया अंकुर ...

कुछ अरसा गये
लगाया था एक पौधा
आँगन में अपने ,
सोचा था
खिलेंगे फूल !
चूक हुई हम से एक
किया न ख्याल पौधे का ,
न सही दिया पानी
और न किया संरक्षण
तेज धुप
और हवा के थपेड़ो से!
मुरझा गया वो, नन्ही सी जान!
गये दिनों
लगाया फिर एक पौधा ,
की रखवाली धुप और हवा
और सींचा उसको पानी से !
आज सुबह देखा
पौधा वो मुस्कुरा रहा था
एक नये फूल का अंकुर
नज़र उस पर आ रहा था !
--- अमित १२/०५/२०१०

Monday, May 10, 2010

तुम याद आते हो...

सूरज की पहली किरण
जब पड़ती मेरे चेहरे पर ,
तुम याद आते हो !
आते-जाते चिडता है
अब मुझे घर का दरवाजा ,
तुम याद आते हो !
डरती है मुझको
अमावास की काली रात
और पूनम की चांदनी
जलती मुझको,
तुम याद आते हो !
कोई हँसी नहीं गूंजती
सुना रहता है अब आंगन मेरा,
तुम याद आते हो !
आँखों से माना दूर हो
ख्यालो से मेरे कहाँ जाते हो,
सच कहता हूँ
तुम याद आते हो !!!
--- अमित १०/०५/२०१०

Wednesday, May 5, 2010

अब हमारी बारी है ...

सुना एक मुहावरा कई बार
खाली दिमाग शैतान का वास
जब भी सुनते बडे खुश होते
लगता हमको देख बना
यों तो सूरत सीरत भोली है अपनी
दिमाग मगर जरा गड़बड़ है अपना
बे-लगाम घोडे सा ये भागता
कहाँ कब कैसे , करे कोई खुराफात
ये तो बस ये ही जानता
गये दिन की ही बात है
हम यारो के अपने साथ थे
गौर करने की बात है
दिमाग से वो भी तंग हाथ थे
ये तो सोने पे सुहागे वाली बात थी
पूरी बारात शैतानो की साथ थी
बहुत हुआ सब पुराना
चलो आज करे नया कारनामा
ख्यालों के फ़िर सैलाब आने लगे
ये करे या वो करे , दिमाग सब लडाने लगे
शैतानो को ख्याल कब अच्छे आने थे
ज़ोर पर ज़ोर लगते गये और
सारे प्रस्ताव ओंधे गिरते गये
एक विचार तव अंधरे में जुगनू सा चमका
क्यों न सब ज्ञान और हुनर अपना मिलाये
और मंच ऐसा बनाये , जो सबके काम आए
कमर कस कर ली हमने तैयारी है
देखना दुनिया वालो , अब हमारी बारी है ...

--- अमित

हौसला रखते है हम ....

पत्थरों को तोड़ कर रास्ता बनाना आसान नही होता
आसान रास्तों पर चल कर कभी नाम नही होता
माना नदी का रुख नही मोड़ सकते है हम
उस नदी पर बाँध बना सकते है हम
क्या जो फूल नही राहों में हमारी
कांटे से काँटा निकालने का हुनर जानते है हम
क्या जो राहे मंजिल में गिर गये हम
उठ कर फ़िर बढ़ने का दम रखते है हम
क्यों सोचते है वो की हम से न होगा ये
चुनौतियों को हकीकत में बदलने का हौसला रखते है हम ....
--- अमित

Tuesday, May 4, 2010

गुरु द्रोण ...


चर्चा आजकल येँ आम हैं
देश हमारा ,
होता हर जगह क्यों नाकाम हैं ...
शिक्षाएं तो हमारी अच्छी हैं
देती परिणाम अब ये दुसरा हैं ...
कहते ,
शिष्यों ने अब गुरु सम्मान छोड़ा
यह देख , ज्ञान ने उनसे मुंह मोड़ा ...
शिष्यों ने गुरुओं का तर्क स्वीकार
और पक्ष अपना संभाला ...
माना ,
स्तर शिष्यों का धुल धूसरित हुआ
गुरुओं ने कहाँ गरिमा को संभाला ...
एकलव्य तो अब यहाँ मिलते नहीं
पर गुरु द्रोणो की कमी नहीं ...
शिक्षार्थी को ये, स्वीकारते नहीं
कर स्व-अभ्यास कोई आगे बढ़े
तो प्रोहत्साहन को पूछे कौन,
निरुत्साहित करने को तैयार खड़े ...
एकलव्य को अर्जुन समझते द्रोण
तो ये प्रथा ही न जन्म ले पाती,
गुरु, गुरु ही रहते ,
शिष्यों को भी सही दिशा मिलती जाती ...

--- अमित 04/05/10