Monday, March 22, 2010

शब्दों की धार ...

गये दिनों से चर्चा कुछ गर्म थी
दिखाई न दिए वो एक अरसे से
बात लोगो को हज़म कम थी !
सुगबुगाहट तो कानो तक उनके भी थी
दे कान हर एक आहट पर
आदत येँ जरा उनको न थी !
सही ही हैं
सूरज को नहीं ज़रूरत
करे मुनादी अपने आने की
सात घोड़ो की टापे
काफी हैं सोतो को जगाने !
छुपा रहे चाहे लाख बदली में
आना ही हैं बाहर
रौशनी अपनी उसको फैलाने !
हुई आज जो वापसी फिर
वही चमक हैं आँखों में
शब्दों के खिलाड़ी हैं
वही धार हैं बातों में ...
(on seeing yatish active after long time )

शीर्षक की खोज जारी हैं ...

काफ़ी दिन हो चले हैं अब
और हम हैं कि
बस सर खुजलाये जा रहे हैं
कागज़ कलम तो हैं हाथ में
पर लिख न हम कुछ पा रहे ,
बनती है तो बस
चंद आढ़ी -तिरछी लकीरे !
शब्दों को जोड़ना तो
मानो जैसे भूल गये ,
ख्याल तो मानो हवा हो गये
छुआ मन को और गायब हो गये !
जल बिन मछली क्या होती
समझ हमको अब आता हैं ,
जुबान तो पहले ही खामोश थी
कलम का भी अब साथ छुटा जाता हैं ...
--- अमित ०१/०४/२०१०

Sunday, March 7, 2010

बेटे की करनी...

घर में हुआ बेटा , मनाई गई खुशियाँ
बस चंद ही दिनों में सामान्य हो गई दुनिया
ज्यों ज्यों , बड़ा होता बेटा
वो सुनता, जो पिता उसका कहता
"बेटा, किये मैंने सब जतन,
और ज्यादा मैं मेरे से कुछ होता...
देखे हैं दुःख मैंने बहुत,
चाहता नहीं मैं , तू वो देखे ,
कर खूब पढाई , खूब मेहनत
मुझे हैं डर , मैं कुछ ज्यादा कर पाऊँ "
बेटा था आज्ञाकारी
चाह थी आशाये, पिता की पूरी हो सारी...
भुला दी दुनिया सारी, और की दिन रात मेहनत
चंद दिनों कि दूरी, ने रंग दिखलाया
कल के त्याग ने, आज जाके रंग दिखलाया
बदल गयी घर कि सूरत सारी...
सारा घर परिवार संग खुशियाँ अब मनाता हैं
रहती चमक आँखों में पिता कि,
और गर्दन बेटे के सम्मान से हुयी ऊँची...
--- अमित ७/०३/2010