Monday, March 22, 2010

शीर्षक की खोज जारी हैं ...

काफ़ी दिन हो चले हैं अब
और हम हैं कि
बस सर खुजलाये जा रहे हैं
कागज़ कलम तो हैं हाथ में
पर लिख न हम कुछ पा रहे ,
बनती है तो बस
चंद आढ़ी -तिरछी लकीरे !
शब्दों को जोड़ना तो
मानो जैसे भूल गये ,
ख्याल तो मानो हवा हो गये
छुआ मन को और गायब हो गये !
जल बिन मछली क्या होती
समझ हमको अब आता हैं ,
जुबान तो पहले ही खामोश थी
कलम का भी अब साथ छुटा जाता हैं ...
--- अमित ०१/०४/२०१०

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