Thursday, August 19, 2010
बधाई गीत...
Sunday, August 15, 2010
आज़ादी का जश्न ...
Thursday, August 12, 2010
एक प्रयोग ...
अशोक चक्रधर जी की एक कविता हमने सुनी
कुछ ज्यादा ही प्रभावित, उससे हम हो गये ,
जुगाड़ लगा उनसे मिले,
समझा-बुझा, मन की बात बताने वाला यंत्र
उधार कुछ दिनों के लिए हम उनसे लिए.
सोचा चलो हम भी उस यंत्र को आजमाएंगे
क्या विचारे है हमारे बारे में, यह पता लगायेंगे
पहला शिकार श्री-मति जो को ही बनाया
सुनकर उनके विचार, सिर हमारा चकराया,
यंत्र के आवाज कुछ ऐसी आती थी
इंजिनियर जान कर इनसे ब्याही थी
यहाँ ये कवि, गले मेरे पड़ गया
कविताएं तो राम ही जाने कैसी करता है,
मगर कोई पूछे इनसे, कविताओं से क्या पेट भरता है?
पहले ही मोर्चे पर मुहं की हमने खाई थी
सहमे ज़रूर थे, पर हिम्मत न गवाई थी.
दूसरा शिकार हमारे बिहारी बाबू थे
अपनी कविताओं के दम पर, किये हम उनपर काबू थे
उम्मीद अबके पूरी थी, रिपोर्ट अच्छी ही आयेगी
सोच कर यही, ख़ुशी-ख़ुशी बटन यंत्र की दबाई
आवाज अपने कानो में फिर कुछ यूँ आई
आ गये है फिर, चार कविताये सुनायेंगे
तंग आ चुके है हम, ये ज़बरदस्ती वाह-वाह करवायेंगे.
लड़ाई पड़ रही अब भारी थी, दुसरे मोर्चे पर भी हार हमारी थी.
सोचा अबके , नये किसी मुर्गे को आजमाएंगे,
नया-नया मुल्ला है, अल्लाह ही अल्लाह पुकारेगा
सुन कर कुछ तारीफ़, खुश थोडा हम हो जायेंगे.
इसी उधेड़ बुन में, शर्मा जी का रुख हमने किया
जैसी उम्मीद थी, हाथों हाथ उन्होंने हमको लिया
लगता अभी सब कुछ अच्छा-अच्छा था,
जाने यंत्र के बटन पर ऊँगली कब अपनी दब गई,
दबी-दबी सी एक आवाज़ कानो में फिर आई
मरने की यहाँ फुर्सत नहीं, ये करते कविताई
वो भी करे तो ठीक है, करते बस हमारी खिचाई...
ख़ुशी यहाँ भी अपनी, गले हमे मिलने से रह गई
शक्ल अपनी घुटनों तक लटक अब थी
कोसा उस घडी को, जब इस प्रयोग की याद आई थी ...
(अपने जन्म दिन पर अपना ही शिकार किया ...अशोक चक्रधर जी की एक कविता से प्रभावित हैं )
--- अमित १२/०८/२०१०
Tuesday, August 10, 2010
फिर मार जाती है मुझे...
अदाये हुस्न की
आती है उसे...
इश्क हूँ मैं
अदाये हुस्न की
मार जाती है मुझे...
चाहता है वो
रहना, योंही बे-पर्दा
डर जमाने की
बद-निगाही का
फिर मार जाता है मुझे...
रहता है वो, बेख़ुद
ख़ुद ही का होश नहीं
यह बेख़ुदी उसकी
फिर मार जाती है मुझे...
रहता हैं वो तो
अपने मद में हरदम चूर,
बद-गुमानी यह उसकी
फिर मार जाती है मुझे...
यों तो भोला नहीं वो जरा
पर देखो कैसा अनजान बन रहा
अल्हड़पन यह उसका
फिर मार जाता है मुझे...
न-वाकिफ नहीं वो
हालत मेरी से
अदा हमको सताने की ये
फिर मार जाती है मुझे...
वो हुस्न है
अपनी अदाए भला कहाँ छोड़ेगा
और हम भी इश्क है
आशिकी कहाँ छोड़ी जाए हमसे ...
--- अमित (१०/०८/१० )
"माता" उधर ही आती है ...
पपीता कहूँ या फीता
सीता कहूँ या गीता
बसंती बोलूं या धन्नो
असल नाम तो राम है जानता
खैर नाम को तो छोडिये
नाम से हमे क्या काम
करते है चर्चा इसकी,
खाना सब लोगो का सर
यही है इनका, इकलौता काम...
अरे हाँ,
अदाकारी भी ज़बर इनको आती है
आप दे किरदार कोई, समा उसमें जाती है
काम यह पर अपने जोखिम पर कीजियेगा
न आये किरदार से बाहर, दोष हमे न दीजियेगा
हमने भी दो-तीन बार आजमाई है
और हमेशा ही मुहं की ही फिर खाई है
किरदार में यें कुछ ऐसी समाई
हफ़्तों फिर उससे बाहर न आईं
लाख समझाया हमने, लाख मनाया
दिए लालच और धमकी भी हमने
जुगत काम मगर एक न आई
लगता मानो, भैंस के आगे बीन बजाई
अपना दिल तो नाज़ुक है. तरस फिर भी खा गया
तरस मगर इनको किसी पर न आई
एक ही गलती, इन्होने बार-बार दोहराई
यह इनकी सजा है, जो कविता बनकर यहाँ आई ...
कविता हमने लिख तो दी, जी मगर घबराता है
दूर से कानो में कुछ आवाज सी आती है
"अमित जी" संभलिये "माता" उधर ही आती है ...
(लिटल इंडिया के एक सदस्य पर )
--- अमित १०/०८/१०
Friday, August 6, 2010
नाओ दिस इज टू मच बाबा...
Monday, August 2, 2010
कहानी एक फेन्सी ड्रेस शो की ...
सुझाव इस बार लिटिल इंडिया को अनोखा आया
क्यों न सुपर-स्टारों को घर जाए बुलाया
सबने हामी तुरंत भर दी और तयारी शुरू कर दी
पर समय की तंगी ने रंग में भंग कर दी
मगर कुछ शातिर दिमागों ने, महफ़िल फिर हरी कर दी
महफ़िल में लगा हर रंग का तड़का था
सितारों का जोश सबके अंग-अंग में फड़का था
कहीं शायरी के अपनी , तीर चलाते शायर भाई मिले
तो चीनी और लामा भी आ फिर गले मिले
जय-वीरू की दोस्ती देख, फिर हंसी आई
तो बक-बक ने बसंती की, सर सब की दुखाई
नन्ही परी का खून, जालिम एक चुड़ैल ने पिया
और पैसे का शो-ऑफ फिर किसी ने किया
गाँव से अपने, ओंकारा भी आये थे
पारो ने भी वहां, देवदास अपने मनाये थे
कुछ करतब जोकर ने भी अपने वहां दिखाए थे
एक माओवादी ने आ, फिर वहां आतंक मचाया
और आ सकते में, गजनी ने अपना होश गवाया
पुलिस ने भी फिर, हाथ गाने में आजमाया
और गावं की एक छोरी को, मिस-इण्डिया का ख्वाब आया
देख कर माहौल , बड़ा ही अजीब लगता था
चित्रण पागलखाने का, बड़ा सजीव लगता था
यहाँ कौन किस से कम रहने वाला है
सच ही है , लिटिल-इंडिया का अंदाज़ लिराला है ...
( सब दोस्तों से मिल कर एक फेन्सी ड्रेस शो किया , उसकी कहानी मेरी जुबानी )
---अमित ०२/०८/२०१०
Sunday, August 1, 2010
मेंटिनेंस प्रोजेक्ट की दास्ताँ ...
तुम मेंटिनेंस प्रोजेक्ट में आना
हमको तो कुछ अब होश नहीं
हो सके तो तुम ही बतलाना...
मेंटिनेंस प्रोजेक्ट अलोकेशन जब हो जाए
दिन-रात का अंतर तब खो जाए ,
जब आँखों में घुमे; दिन में तारे
तब समझो मेंटिनेंस प्रोजेक्ट अलोकेट हो गया प्यारे
रु रु रु ...रु रु रु ...रु रु रु ...
ये मेंटिनेंस प्रोजेक्ट हमे कहाँ ले आया
कमर सबकी करे "हाय",
बग रोज नये-नये आये
कोई ये बताये स्लूसन क्या होगा
वू वू वू ...वू वू वू ...वू वू वू ...
ये मेंटिनेंस प्रोजेक्ट हमे कहाँ ले आया...
अरे कोई हमारा कोड तो रीविऊ करा दो
अरे कोड रीविऊ से ही क्या हासिल होगा
अन्हान्स्मेंट की बाते क्या करते हो
पुराने बग न संभल अभी आते है
एस-एल-ए का जाने क्या होगा
रु रु रु ...रु रु रु ...रु रु रु ...
ये मेंटिनेंस प्रोजेक्ट हमे कहाँ ले आया...
जाने ऐसी भी क्या मज़बूरी
दे देते हर एस-एल-ए को मंजूरी
अरे दम हैं तो खुद कोड कर के दिखाओ
दिन में ऑफिस आओ , रातो को घर न जाओ
हम माने तुम को बड़ा, समय पर डिलीवरी कराओ
रु रु रु ...रु रु रु ...रु रु रु ...
ये मेंटिनेंस प्रोजेक्ट हमे कहाँ ले आया...