Wednesday, October 31, 2007

SPICE-07

काम, काम और बस काम कर
आ जाता मन में नीरसता का भाव
काम के साथ जो मिल जाये; खेल की मस्ती
मन में होता नयी ऊर्जा का संचार
यही सोचकर हुआ SPICE-07 का आगाज़
शपथ ली गई न होगा खेल भावना का अपमान
बाहू बल को तोलने आ गए सब बीच मैदान
जीत होगी किस का , किसी को नही था ख्याल
बस सब को लेना है इसमे हिस्सा यह ही था ध्यान
स्पर्धा पर स्पर्धा आती गई और बढ़ता गया उत्साह
नीतियाँ बनने लगी, कैसे दिखाए अपना दम-ख़म
और देने लगी दिखाई टीम भावना से जो शक्ति आई
हर कोई खेल की मस्ती में डूब था ,
काम को मगर अपने , कोई न भुला था
दी गई थी जिस को जो जिम्मेदारिया
हर कोई उन सब पर खरा उतरा था
समय कैसे गुजरा , कब SPICE ख़त्म होने को आया
अच्छा प्रश्न है , इस का उत्तर कोई न दे पाया
SPICE तो ख़त्म होता है , इस का असर बाक़ी है
जिस को भी देखो , नयी ऊर्जा उसमे नज़र आती है ...
( नीरसता = No Excitement , उर्जा = Energy , बाहू बल = Strength, स्पर्धा = Event)
( For REF: SPICE is an event that took place in our company, full of sports and knowledge sharing.)
--- अमित ३१/१० /०७

Friday, October 26, 2007

अधिकार और समर्पण ...

हमेशा अपना कहा
मुझे तुमने
और हमेशा अपना माना
तुम्हे मैंने
अंतर है क्या कुछ इस में ?
हाँ , अंतर है
"कहने " में अधिकार है
और "मानने" में समर्पण !
--- अमित २६/१०/०७

Tuesday, October 23, 2007

जाने क्या सोच कर...

सारा कोताहल, मायूसी में बदल गया
जाने क्यों,
माँ के चेहरे पर भी उदासी आ गई
ये डर था या सच से घबरा गई
इस बार तो लड़का होना था
ये लड़की कैसे आ गई
अब क्या होगा,
फिर वही जिद्दोज़हद , वही परेशानी
सबको अपनी अपनी पड़ी थी
दादी तो जाने किन किन को कोस रही थी
और माँ, कुछ और सोच रही थी
डर था फिर नौ महीने ऐसे ही बिताएगी
बाप भी थोडा परेशान था
इस जमाने में लड़की को पालना कहाँ आसान था
लड़की पैदा होने का गम उसे ना सताता था
उसकी शादी कैसे होगी, यह डर अभी से आता था
बच्ची, इस सब से बहुत दूर माँ के करीब सोती थी
बाहर दादा बैठा था उसका,
बच्ची के पैदा होने की ख़ुशी बहुत उसे थी
जो उसके चेहरे से मालुम होती थी
दादा, बडा समझदार था
बदलते इस जमाने का पूरा उसे ख्याल था
लड़की अब कहाँ लड़को से मात खाती है
जहाँ देखो, लड़को से बाजी मार ले जाती है
दुनिया भी जाने कैसी सोच अपनाती है
लड़की से ही शुरू हुई है और उसी से कतराती है ...
(शायद आप में से कुछ को अजीब लगे, मगर जो मेरा अनुभव था वो कुछ ऐसा ही था।)
--- अमित २३/१०/०७

Monday, October 22, 2007

भगवान् का फोन कॉल ...

ट्रिंग-ट्रिंग ट्रिंग-ट्रिंग
फ़ोन की घंटी बजी
मैंने "हैलो" बोला
और दूसरी तरफ
एक रोबदार आवाज ने
"कैसे हो" यह बोला
आवाज नयी थी
थोडा रोब से
हमने भी पूछा
हम तो ठीक है
मगर यह सवाल
किसने पूछा
आवाज थोडा गरमा गई
और गर्मी हम तक आ गई
हमे नही पहचानता
क्यों
क्या भगवान् को नही जानता
हम भी थोडा जोश में आगये
और फ़ोन पर ही टकरा गए
ज़ोर से कहा
भगवान् क्या फुरसत में है
जो हमसे टाइम-पास करने आ गए
पंडित जी ने कब उनको छोड़ दिया
और फोन की तरफ रुख कैसे मोड़ दिया
दूसरी तरफ से हंसी की आवाज आई
और कहा जानता थे तू मसखरा है
पर जैसा भी है दिल का खरा है
तेरी यह बात हमे बहुत भायी है
और तीन वर देने की इच्छा मन में आई है
शंका भरा एक प्रश्न तब हम ने दागा
करोगे हमारी इच्छा पूरी, रहा ये वादा
हमारी शक्ति को परखता है,
चलो वचन दिया, जो तुम ने कहा वो होगा
फ़ोन के दूसरी तरफ से इन शब्दों को मैंने सुना
धड़ाधड़ तीन वचन हमने माँग डाले
दुनिया में शांति हो ,
दुनिया में भेद-भाव न हो ,
दुनिया में सब के पास काम हो,
जिन को सुन फ़ोन काट भगवान् भागे
कुछ देर बाद एक एस-ऍम-एस आया
तुम इंसान हो, कभी नही सुधर पाओगे
ये कोई भगवान् नही दे सकता
खुद मेहनत, लगन और इमानदारी
इन तीनो से प्रयास करो तब ही पाओगे
घरन-घरन फिर घंटी बज रही थी
अब कब यो ही तक सोते रहोगे
माँ की आवाज कानो गूँज रही थी
उठे तो रात का सपना याद आया
होठो पे मुस्कान तैर रही थी
अपने लिए कुछ करने की नयी राह दीख रही थी ...
--- अमित २२/१०/०७

Wednesday, October 17, 2007

सिफर ...

तुम्हारे लिए,मैं क्या हूँ
बस, एक सिफर
इस से ज्यादा,
कभी समझा है तुम ने
हर मुकाम, हर मंज़िल
एक सिफर ही है माना
सही है, तुम ने हमे जो माना
सिफर तो कहा तुमने
इसकी ताकत को मगर ना जाना
ये सिफर ही है ,
जीवन जिस से शुरू हुआ
ये सिफर ही है,
अंक ज्ञान जिस से बना
सिफर से ही ,
विज्ञान ने गति पाई
और सिफर ही था
जिस से दुनिया सितारों तक पहुंच पाई
अभी अंधरे में हो
सिफर को कहाँ जान पाओगे
आंखें जब खुलेगी
खुद दौड़ हमारे पास आओगे ...
--- अमित १७/१०/०७


Tuesday, October 16, 2007

दर्द ...

किसी ने कहा ,
दर्द से जो निकलते है
वो नगमें ,
सबसे मीठे होते
हैं
देखो तो ,
सच ही लगता हैं
कुछ तो,
कुछ तो कशिश हैं दर्द में
जिसे देखो ,
बस अपनी ओर खींचता हैं
बडा अपनापन,
दर्द के मारो में होता हैं
एक का दर्द,
दुसरे की आंख से बरसता हैं
मेरे दिल में भी,
एक दर्द बसता हैं
रह रह कर जो ,
मेरे शेरो में झलकता हैं ,
बिन दर्द के ,
ये ग़ज़ल कहॉ बन पाती हैं
खुशियाँ हो या ना हो,
दर्द हर एक दिल का साथी हैं ...
--- अमित १६/१०/०७

Thursday, October 11, 2007

व्यस्त दिन ...

हुई सुबह , दिन निकला
निगाह डाली कलाई पर
अलसाई आंखों से देखा
लगा थोडा जल्दी निकला
अभी बजा ही क्या था
छोटा कांटा आठ और
बड़ा बारह पर ही तो अटका था
ज़रा क़मर सीधी कर ले
यही सोच कर मैं लेटा था
ना जाने कब बिस्तर छोडा
और दफ्तर पहुँचा
अभी पहुँचा तो बस सुना
दस का आखरी घंटा
दीवार टगी घड़ी से बजा
अभी बस्ता रख , कंप्यूटर खोला
महसूस हुआ पीछे से कोई
काफ़ी को चलो बोला
घड़ी देखी, समय ठीक था
ग्यारह बजे काफ़ी ब्रेक था
पौन-एक घंटा काफ़ी पर
इधर-उधर का कुछ-कुछ बतियाया
थोडा जा ई-मेल पढी
तो टिफिन ले मेरा दोस्त आया
लंच तो करना ही है
एक घंटा हमने लंच का छोडा है
आख़िर पेट के लिए तो लडाई लड़ी है
अब चलो बहुत हुआ
थोडा काम करे , सोचना शुरू हुआ
ना जाने लगता क्यों है
कुछ उबासी आई और
शरीर में सुस्ती सी छाई
चलो चार बजे है
एक चाय पिए और काम करे
एक दोस्त को हम ने फरमाया
वो दोस्त दो को और अपने साथ ले आया
पांच बजे वो चाय हुई और
डेस्क का रास्ता सब को याद आया
थोडा थोडा तेज हाथ चले
गरम चाय का जोश काम आया
जेब में फिर फ़ोन बजा
जिम अब तुम्हे है जाना
जोर जोर बजते अलार्म ने कहा
काम बहुत होता है
सेहत का ख्याल ज़रूरी है
छः बज चुके है
दफ्तर का समय खत्म हुआ
दीमाग थक चूका है
आज दफ्तर में बहुत काम हुआ ...
(समझदार को इशारा काफी )
--- अमित ११/१०/०७

Wednesday, October 10, 2007

सम्मान ...

क्यों होता है ऐसा
करते सब है एक सा
मगर कोई याद रहता
और कोई भुला दिया जाता
कुर्बानी तो सब देते हैं
कोई इतिहास बन जाता
और कोई इतिहास में खो जाता
किसी के पसीने की बूंदे गिरे
तो दुनिया में जोश दौड़ जाता
और किसी का ख़ून भी बह जाये
तो लोगो के माथे पर शिकन ना आता
शहीद हुए थे वो तो , शहीद हुए थे ये भी
फिर क्यों एक का जन्म दिन और पुण्य तिथि
हम सब को हमेशा याद दिलाया जाता
और दूजे की समाधि पर कोई फूल ना चढाया जाता
आख़िर ऐसा क्यों है
क्यों अपने लोगो में भेद भाव किया है जाता
किस की है गलती, किस को दे दोष
हमी है जिसने किया ये फैसला है
ये एक फैसला भर ही है
क्या ये बदला नही जा सकता
है जो जिस सम्मान का अधिकारी
उसे वो सम्मान नही दिया जा सकता ?
--- अमित १०/१०/०७

Monday, October 1, 2007

ज़माना साथ आ गया...

पल पर पल गुजरते गये
और मिनट, घंटो में बदलते गये
दिन ना जाने कब शुरू हुआ
और कब रात ख़त्म हुई
समय यों ही बीतता गया
और महीने साल हो गये
अब तो याद भी
नही कैसे हुआ था सफ़र एक
इक हल्का सा धुंधलका; बस बाक़ी है
कब जुबां खामोश होती चली गई

और कब दिल बोलने लगा
महफ़िलें , तनहाइयों में तब्दील हो गयीं
अकेलापन, तो खुद से घबरा गया
और चुपके से शायरी के पहलू में आ गया
जाने कैसे यह सफ़र हमे रास आ गया
हम तीनो साथ चले थे कभी
आज देखा तो ज़माना साथ आ गया ...
--- अमित ०१/१०/०७