आज शाम मैं उदास था ,
करने को कुछ न मेरे पास था !
पूरे दिन तोडा था बिस्तर मैंने ,
एक पल को बिस्तर, न छोड़ा था मैं !
पड़े-पड़े दुख रहा था अंग-अंग मेरा ,
करने निकले सैर, कम्बखत पैर न उठा मेरा !
पास के एक बाग़ की फिर राह ली ,
पेड़ के नीचे पड़ी बैंच हमने थाम ली !
वहां देख बच्चों की उछल कूद ,
खलबली मेरी उदासी में मची !
करते देख कसरत बुजुर्गो को ,
शरम कुछ अपने हाल पर आई !
ठंडी हवा पेड़ों से छन-छन कर आ रही थी.,
मन से उदासी भी , अब दूर जा रही थी !
आलस अपनी भी, पतली गली निकल लिया,
फिर लिखने को कुछ, अपना भी मन किया !
खुश होते मन ने, भावनाए शब्दों में पिरो दी,
और छोड़ आलस हमे, पंक्तिया आपस में जोड़ दी !
दिन अपना इतना भी व्यर्थ न गया,
जाते जाते यह सिखला कर गया !
चलती दुनिया हर दिल हो भाती है ,
और गर ठहर जाए तो बहुत खीज़ आती है !
(शाम को पार्क में उदास बैठा था, अचानक ये पंक्तिया दिमाग में आ गई ) ...
--- अमित ३१ /१०/२०१०
6 comments:
kya bat hai chalti duniya har kisi ko bhati hai......
bahut sundar!!
dekha bade log hamesha sahi seekh dete hai apko bhi mili or ye kavita ban gayee..bhaut khushi hui isko padkar
amit jee
namaskaar !
aap ki rachnca kasie janmti hai aur kab janm leti hai ye vivran achcha laga .
thanks
शानदार लेखन, दमदार प्रस्तुति।
बहुत ही गहन चिंतन वाली पोस्ट...
गद्य को पूर्णता देती कविता भी सोचने को विवश करती है.
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