Sunday, May 3, 2009

कहाँ जाऊं मैं ...

दिल करता है

ज़ोर से चिल्लाऊं मैं

सामने है जो दिवार

उस से सर टकराऊं मैं

देखता हूँ जब आइना

करता है दिल कर दूँ चूर आइना मैं

घुटा है दम में इस चार दिवारी में

तोड़ के ये बंदिशें भाग जाऊं मैं

सभी तो यहाँ अपने ही है

इल्जाम किस के कत्ल का लूँ मैं

अपनों को कत्ल कर नही सकता मैं

हौसला नही कर लूँ ख़ुद -कुशी मैं

सोचता हूँ अब

जहाँ न ढूँढ सके कोई मुझे

जा कर ऐसी जगह खो जाऊं मैं ...

--- अमित ३ /०५/२००९