Wednesday, April 29, 2009

उस्तादों के उस्ताद...

करनी जो हो किसी की खिचाई
सबसे आगे नज़र हम आए
बात बे बात मारने में
महारत जो हमने पाई
बस एक बार भिड कोई हमसे जाए
समझो शामत उसकी आई
हुई न जब तक मान - मुनव्वल
किसी की न जान बची
दिन-ब-दिन बढता गुरुर जा रहा था
नाचीज़ अब हर कोई हमें नज़र आ रहा था
सोचता तो ऊंट भी है
नही है कोई उसका सानी
आता वो भी जब नीचे पहाड़ के
हो जाता गुरुर उसका भी पानी
हुआ हाल अपना भी उस ऊंट सा
हुआ जब सामना उस शख्स का
समझा जिसे बस धूल था
अपनी बातें, उलटी हम पर ही आती थी
जुबान अपनी आगे उसके खुल न पाती थी
नौसिखिये सी हालत अपनी नज़र आती थी
हम तो थे उस्ताद , मगर
मिल गये आज हमे " उस्तादों के उस्ताद "
सबक अच्छा हमको सिखाया
दूर रखो कला से गुरुर ,
ये गुरुर न कभी किसी के काम आया ...
--- अमित २९ /०४/०९

Sunday, April 19, 2009

जुगाड़ की कहानी ...

बचपन से सुना है एक शब्द हर मोड़ पर ...
नाम है उसका "जुगाड़ "
जो भी मिलता "जुगाड़ " का चर्चा करता ...
कैसे हुआ ये पैदा
इसकी भी अपनी कहानी है ,
जो पेश अपनी जुबानी है ...
हुई जब चाह एक बच्चे की,
किया गया "जुगाड़" के बेटा हो ...
हुआ बडा जब वो बच्चा,
किया "जुगाड़" स्कूल उसका अच्छा हो ...
बच्चे मास्टर जी के भी थे,
किया "जुगाड़" के कुछ टयूशन हो...
स्कूल , कालेज हुआ अब पुरा ,
लगा "जुगाड़" की डिग्रिया जमा ...
डिग्रिया तो आ गई अपने हाथ ,
किया "जुगाड़" नौकरी बाड़िया हो ...
"जुगाड़" सारे काम अपना कर गये ,
पटरी पर आ गई जीवन की गाड़ी ...
अब तो बच्चा जवान हो चला ,
दोहरानी है फ़िर यही कहानी ...
"जुगाड़" भी गज़ब है ,
देता "दो बूँद जिन्दगी की "...
चाहती है दुनिया ,
हमसे मिल जाए उनको भी ये "जुगाड़"...
जानते वो नही ,
चलते हम हिन्दुस्तानी लेकर नाम "जुगाड़"...
-- अमित १९ /०४/२००९

Tuesday, April 14, 2009

जलाई "जोत" ...

कुछ कर गुजरने की तमन्ना दिल में थी

अपने लिए तो सबको होती है

दुसरो के लिए , दिल में उसके थी ...

भीड़ से अलग रास्ता बनाना

काम येँ इतना आसान नही

आसानी से जो मिल जाए

वो मकाम , उसका मकाम नही ...

तैयारी अपनी भी पूरी थी

पता था ज़माना यों साथ न आएगा

ना जाने कब और कहाँ

यें ज़माना उंगली अपनी उठाएगा...

डर कोसो उसके कदमो से दूर था

पता था,

चाह है अगर रौशनी की

जलाना कुछ तो जरूर होगा ...

जले भी , तडपे भी ,

देख बदलते लोगो को

दिल दुखा भी ...

कदमो को पीछे हटा लेना

उसने कहाँ सीखा था

ऐसे लोग कहाँ मंजिल तक जाते है

मंजिल ख़ुद उनके क़दमों तक आती है ...

जीत आख़िर सच की ही होती है

उसकी दिखाई "जोत "

ज्वाला आज बनी जाती है ...

काम उसका हुआ पूरा

बारी अब हमारी है

जलाए यें जोत रखना

जिम्मेदारी अब हमारी है ...

( अपने गुरु जी को समर्पित )

--- अमित १४/०४/२००९

Monday, April 6, 2009

बे-शर्मी ...

सुनते है
शर्म आंखों में होती है
मतलब हुआ
ये सब के पास होती ...
फ़िर क्यों
हमेशा ये शर्म नही देती दिखाई
राम ने आँखें तो सब को दी ...
सम्भव है
वहां भी किसी ने दलाली खाई
किसी को दी ज्यादा
और कर दी किसी के साथ बे-वफाई ...
हमारे साथ भी कुछ यूँ ही हुआ
वफा हमारे हिस्से में और
उनको मिली बे-वफाई ...
बे-शर्मी के इनकी चर्चे आम है
और हम
अपनी शर्म से परेशान है ...
बाज ना आते अपनी हरकतों से यें
जब देखो
इधर - उधर टांग अपनी अडाते यें
और मुंह की खाने के बाद
शेखी और बघारते यें...
देख इनकी ये बे-शर्मी
तरस हम इन पर खाते है
ख़ुद हम शर्मा कर
दुसरे रस्ते हो जाते है ...
बे-शर्म ये भी कम नही
दिखाने कोई नया करतब
फिर यें पीछे पीछे चले आते है ...
--- अमित ६/०४/०९