Monday, May 7, 2007

वोह इक दिन ...

जीना चाहता हूँ,
एक दिन,
हाँ, बस एक दिन,
मैं उसके साथ,
चाहता हूँ जिसे,
मैं सब से ज्यादा,
और जो चाहती है मुझे;
अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा।
तब,
पहलू में एक दूजे के हम होंगे,
और वक़्त वही ठहरा होगा,
मेरे हाथं में,
उसका रोशन चहरा होगा,
एक दूजे के इतने करीब होगे,
कि दूरी का कोई निशां ना होगा,
हवा को भी; इजॉज॒त ना होगी.
वोह आये हमारे दरमियान ,
टकराती उसकी साँसों से मेरी सांसे होंगी,
वोह जिस दम मेरे आगोश में होगी,
लफ्जो का तब वहाँ काम ना होगा,
हर ज़ज्बात; बस आँखो से बयां होगा
जानता हूँ मैं,
होश मुझे; तब कुछ ना होगा,
शराबी सारा आलम,
किया उसकी नशीली आँखो ने होगा,
उसके बदन कि छुअन से; पिघला
हर ज़ज्बात मेरा होगा,
जिस दम चुमुंगा मैं उसकी पेशानी,
छुपा; आकर मेरे पहलू में मेरा महताब होगा,
पूरी दिलों के हो ; हर ख्वाहिश,
अरमान बस येही, दोनो दिलों में जवाँ होगा....
--- अमित २५/०४/०५

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